पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१२०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली कोई अन्य नगरवासी पुरुषरत्न कुछ उद्योग करें तो भी हम यह समझ के कृतकृत्य होंगे कि घर वालों ने न सुना तो पड़ोसियों ही ने हमारी बात पर ध्यान दिया। अरे भाई शीघ्रता में कुछ अधिक न हो सके तो अकबरपुर की गोरक्षिणी सभा अथवा फरुखाबाद के अनाथाल हो को कुछ सहायता दो! वं० ४, सं० ३ ( १५ अक्टूबर ह० सं० ३) भौं निश्चय है कि इस शब्द का रूप देखते ही हमारे प्यारे पाठकगण निरर्थक शब्द समझेंगे, अथवा कुछ और ध्यान देंगे तो यह समझेंगे कि कार्तिक का मास है, चारों ओर कुत्तें तथा जुवारी भौं भी भौंकते फिरते हैं, संपादकी की समक में शीघ्रता के मारे कोई और विषय न सूझा तो यही 'भौं' अर्थात भूकने के शब्द को लिख मारा! पर बात ऐसी नहीं है। हम अपने बाचकवृंद को इस एक अक्षर में कुछ और दिखाया चाहते हैं । महाशय ! दर्पण हाथ में लेके देखिए, आंखों की पलकों के ऊपर श्याम बरण विशिष्ट कुछ लोम है ? बरुनी न समझिएगा, माथे के तले और पलकों के ऊपर वाले रोम समूह ! जिनको अपनी हिंदी में हम भौं, भौंह, भौहें कहते हैं, संस्कृत के पंडित 5 बोलते हैं ! फारस वाले अबरू और अंग्रेज लोग 'आईरो' कहते हैं, उन्हीं का वर्णन हमें करना है। यह न कहिएगा कि थोड़े से रोएं हैं, उनका वर्णन ही क्या ! नहीं ! यह थोड़े से रोएं सुवर्ण के नारों से अधिक हैं। हम गृहस्थ हैं, परमेश्वर न करे, किसी बड़े बूढ़े की मृत्यु पर शिर के, दाढ़ी के और सर्वोपरि मूंछों तक के भी बाल बनवा गलेंगे, प्रयाग जी जायंगे तो भी सर्वथा मुंडन होगा, किसी नाटक के अभिनय में स्त्री भेष धारण करेंगे तो भी घुटा डालेंगे, संसार विरक्त होके संन्यास लेंगे तो भी भद्र कराना पड़ेगा, पर चाहे जग परलो हो जाय, चाहे लाख तीर्थ धूम , चाहे दुनिया भर के काम बिगड़ जायं, चाहे जीवनमुक्त हो का पद क्यों न मिल जाय, पर यह हमसे कभी न होगा कि एक छूरा भौंहों पर फिरवा लें ! सौ हानि, सहस्र शोक, लक्ष अप्रतिष्ठा हो तो भी हम अपना मुंह सबको दिखा सकते हैं, पर यदि किसी कारण से भौंहैं सफाचट हो गई तो परदेनशीनी ही स्वीकार करनी पड़ेगी ! यह क्यों? यह यों कि शरीर भरे की शोमा मुखमंडल है और उसकी शोभा यह हैं ! उस परम कारीगर ने इन्हें भी किस चतुरता से बनाया है कि बस,कुछ न पूछो! देखते ही बनता है! कबिबर मर्तृहरि जी ने 'भ्रू चातुर्य, कुंचितामा, कटाक्षा, स्निग्धा, वाचो ललिता चैव हासः,