पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१५३

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में सारे जगत के मुकुटमणि हो रहे हैं। उनकी पालिसी समझना तो दरकिनार, किसी साधारण पढ़े लिखे से पालिसी के माने पूछो तो एक शब्द ठीक २ न समझा सकेगा। इससे बढ़ के नीति-निपुणता क्या होगी कि रुजगार में, व्यवहार में, कचहरी में, दरबार में, जीत में, हार में, बैर में, प्यार में, लल्ला के सिवा दद्दा जानते ही नहीं ! रीझेंगे तो भी जियाफत लेंगे, नजर लेंगे, तुहफा लेंगे, सौगात लेंगे, और इन सैकड़ों हजारों के बदले देंगें क्या, 'श्री ईसाई' (सी० एस० आई० ) की पदवी, या एक कागज के टुकड़े पर सर्टिफिकेट अथवा कोरी थेंक ( thank) (धन्यवाद ), जिसे उरदू में लिखो तो ठेग अर्थात् हाथ का अंगूठा पढ़ा जाय ! धन्य री स्वार्थसाधकता! तभी तो सौदागरी करने आए, राजाधिराज बन गए ! क्यों न हो, जिनके यहाँ बात २ में 'टकार' भरी है, उनका सर्वदा सर्वभावेन सब किसी का सब कुछ डकार जाना क्या आश्चर्य है ! नीति इसी का नाम है। 'टकार' का यही गुण है कि जब सारी लक्ष्मी विलायत ढो ले गए तब भारतीय लोगों की कुछ २ आँखें खुली हैं। पर अभी बहुत कुछ करना है । पहिले अच्छी तरह आंखें खोल के देखना चाहिए कि यह अक्षर जैसे अंगरेज के यहां है वैसे ही हमारे यहाँ भी है, . भेद इतना है कि उनकी 'टी' को सूरत ठीक एक ऐसे कांटे की सी है कि नीचे से पकड़ के किसी वस्तु में डाल दें तो जाते समय कुछ जान पड़ेगा, पर निकलते समय उस वस्तु का दोनों हाथों अपनी ओर खींच लावेगा । प्रत्यक्ष देख लो कि यह जिसका स्वत्वहरण किया चाहते हैं उसे पहले कुछ ज्ञान नहीं होता, पीछे से जो है सो इन्हीं का! और हमारे वर्णमाला का 'ट' एक ऐसे आंकड़े के समान है जिसे ऊपर से. पकड़ सकते हैं और पदार्थ मे प्रविष्ट कर सकते हैं पर उस वस्तु को यदि सावधानी से अपनी ओर खींचें तो तो कुशल है नहीं तो कोरी मिहनत होती है ! इसी से हम जिन बातों को अपनी ओर खींचना आरम्भ करते हैं उनमें 'टकार' के नीचे वाली नोंक को भांति पहले तो हमारी गति खूब होती है, पर पीछे से जहां दृढ़ता में चूके वही संठ के संठ रह जाते हैं। दूसरा अन्तर यह है कि अंगरेजों के यहां T सार्थक है और हमारे पहां एक रूप से निरर्थक ! अंग्रेजी में 'टी' के माने चाह के हैं जो उनकं पीने की चीज है, अर्थात् वे अपना पेट भरना खूब जानते हैं ! पर हमारे यहां ट का अर्थ निकलता कुछ नही है । यदि 'टट्टा' कहो तो भी एक हानिकारक ही अर्थ निकलता है ! घर में टट्टा लगा हो तो न हम बाहर जा सकते हैं, अर्थात् अन्य देश में जाते ही धर्म और बिरादरी में बदनाम होते हैं, और बाहर की विद्या, गुण आदि हमारे हृदय मंदिर के भीतर नहीं आ सकते । आवै भी तो हमारे भाई चोर २ कहके चिल्लायं! यह अनर्थ हो तो है। तीसरा फर्क लीजिए, जितना उनके यहां 'ट' का खर्च है उतना हमारे यहां नहीं है । तिस पर भी हम अपने यहां के 'ट' का बर्ताव बहुधा अच्छी रीति से नहीं करते। फिर कहां से पूरा पड़े ! 'टकार' का अक्षर नीतिमय है ! उस नीतिमय अक्षर को बुरी रीति • नीचे से पकड़ना अर्थात् उसके मूल को ढूंढ़ के काम मे लाना और ऊपर से पकड़ना अर्थात् देवाधीन समझकर उठाना ।