पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१६०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१३८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली रिषि मुनि संसार से कुछ प्रयोजन न रखते थे तो भी अपने संतान अर्थात ब्राह्मणों को जगत गुरु तथा देवता बना गए हैं। ईसा, मूसा मुहम्मदादिक महात्मा भी अपने निज धर्मियों को अन्य मतावलंबियों से अधिक आशा दे गए हैं। हमारी वर्तमान गोर्नमेंट भी प्रजापालन, न्यायपरायणतादि सब बातों का मुकुट धारण करे है तो भी अपने देश- बासियो का पक्ष अधिक करती है। फिर भी हमारे हिंदूदास पक्ष की महिमा नहीं जानते! बात के पक्ष में कह देते हैं कि 'मर्द की जबान और गाड़ी का पहिया फिरता ही रहता है ।' जाति के पक्ष में समझ लिया है कि हमें क्या, जो जैसा करेगा कुह वैसा भुगतेगा। यों चाहे दिन भर झूठ बोलें पर जो किसी भाई का काम आ पड़े तो बस युधिष्ठिर का अवतार बन जायंगे-'अरे भाई अपना दीन धरम तो न छोड़ेंगे' । छिः ! तुम्हारा दीन धरम तो तुम्हारी कुबुद्धि ने उसी दिन छुड़ा दिया जिस दिन तुम्हें यह ज्ञान दिया था कि पक्षपात करना अधर्म है। यदि पक्षपात अधर्म होता तो बड़े २ क्यों करते ? पर यह बातें तो वुह समझे हो ! नहीं तो लड़के भी समझते हैं कि धर्म करने से सुख और अधर्म से दुख मिलता है । और यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि जिस जाति के लोग दूसरों के मुकाबिले में आपस वालों का पक्ष करना जानते हैं वे अपक्षियों के देखे अधिक सुखी होते हैं। फिर बताइए कि पक्षपात पाप है अथवा पुण्य ? विचार के देखिए तो जान जाइएगा कि उन्नति की सीढ़ी और सौभाग्य का मार्ग पक्ष ही है । अतः हमारे पाठकों को चाहिए कि इस मूल मंत्र को न भूलें कि अपना अपना ही है । दूसरों की अच्छाई से हम अच्छे न कहावेंगे जब तक अपनों को अच्छा न समझेगे। क्या ही अच्छा होता जो हमारे बंधुवर्ग और सब झगड़े छोड़ के केवल स्वदेशियों के पक्ष को अपना परम धर्म मानते ! नीति का यह वाक्य पक्ष का क्या ही अच्छा समर्थन करता है कि 'उत्तुंगशैलशिखरस्थितपादपस्य काकः कृशोऽपि फलमालभते सपक्षः । सिहोवली- गजविदारणदारुणोऽपि सीदत्यधस्तरुतले खलु पक्ष होनः' । अर्थात् शैल शिखर थित अति उतंग तरुवर के मृदु फल । खात बुद्धि बल रहित काग केवल पच्छहि बल । महाबली मृगराज नितहि करि कुंभ विदारत ! छुधित पक्ष बिन वृच्छ ओर रहि जात निहारत ॥ यह समुझि बूझि अनबूझ नर, पच्छपात पथ नहिं गहत । ते पच्छ अछति मम सदा सहत रहत संकट महत ॥ १ ॥ हे मयूरपक्षापोड़धारी वृजभूमिचारी भगवान हृदयविहारी हमारे देशभाइयों को सुमति दान करो जिसमें यह लोग अपनों का पक्ष सीखें । प्रभो ! यह उन्ही के संतान हैं जिनका तुम सदा पक्ष करते रहे हो । यदि हमारे पाप तुम्हारी करुणा से अधिक न हो गए हों तो अपनी इस कीति की स्मरण करो कि- पातरी छांछ निछोछी महा अहिरी गुहिराय के बेंचत आंठी । मीन जो ताल खुतार भई गोड़िया कहि ताहि पुकारत टाठी (ताजी) ॥ शंभु कहैं प्रभु ऐसोई चाहिए दास के औगुन झोंकिबों भाठो । जो कहूँ आपनो खोटो मिल तो खरे ठहराय के बांधिए गांठी ॥ १ ॥ क्योंकि 'दीन मीन बिन पक्ष के कहु रहीम कहं जाहिं ?' अतः हमारा पक्ष करो जिससे हम अपनों का पक्ष करने योग्य हों। खं. ५, सं० १ ( १५ अगस्त ह. सं० ४)