पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१७४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१५२ [प्रतापनारायण-पंथावली थे पर काव्य देखने में नहीं आया। भारत के अभाग्य से नगरों में तो काव्यरसिक और कवियों के सहायक मिलते ही नहीं, जो अपना रुपया उगा के उत्तमोत्तम कविता का प्रकाश किया करते हैं उन्हें तो अभागे भारतीय हतोत्साह कर ही देते हैं। यदि एक साधारण गांव में एक साधारण गृहस्थ का परिषम लुप्त हो गया तो आश्चर्य ही क्या है । भगवान तुलसीदास, सूरदासादि को हम कवियों में नहीं गिनते। वे अवतार थे कि उन्होंने जमीन की छाती पर लात मार के अपनी शक्ति दिखाई है, नहीं तो कवि, पंडित, प्रेमी, देशभक्त यह तो दुनिया से न्यारे रहते हैं, इन्हे दुनियादार क्यों पूछने लगे ? हमें शोच है कि अपने बाबा की कविता नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि पिताजी नौ वर्ष की आयु में पितृहीन हुए, १४ वर्ष की आयु में उन्हें गांव और घर छोड़ के कुटुंब पालनार्थ परदेश आना पड़ा। ऐसे कुसमय में कवितासंग्रह करना कसे संभव था? इससे हमें अपने पिता ही का ठीक २ चरित्र थोड़ा सा लिखने की सामथ्र्य है। हमारे पितृवरण के दो बड़े भाई और थे। १. द्वारिकाप्रसाद काका, यह निस्संतान स्वर्ग गए, २. यदुनंदन काका, इनका विवाह मदारपुर के सामवेदियों के कुल में हवा था। इस नगर में परम प्रतिष्ठित श्री प्रयागनारायण तिवारी स्वर्गवासो हमारे दादा ये क्यों कि हमारी चाची उन के चाचा श्री द्वारिकाप्रसाद त्रिपाठी की कन्या थी। उनके एक पुत्र अम्बिकाप्रसाद दादा थे, वुह हमारे पितृचरण के बड़े भक्त थे पर चौदह वर्ष की अवस्था में परलोक सिधारे। हमारी दोनों चाची भी पिताजी से बड़ी प्रीति करती थी पर एक चाची का हमें दर्शन नहीं हुवा । दूसरी चाची सदा पुत्र की भांति हमारे जन्म- दाता को जानती थी। पर हमारे अभाग्य से हम तीन वर्ष के थे तभी परमधाम जात्रा कर गई। यह श्री रामानुजस्वामी के सम्प्रदाय को थी क्योंकि इनके पितृकुल का यही धर्म था। इसी से हमारे घर में बहुत सी रीतें हमारो चाची के पितृकुल की प्रचारित हुई । मेरा नाम भी उसी ढंग का हुवा ! हमारे पिता मो वर्ष के थे तब निज पिता से वियुक्त हुए थे। फिर थोड़े हो काल में उन की माता भी वैकुंठ गई। अतः हमको यह लिखना एक गौरव है कि हमारी चाची के हम भी वात्सल्यपात्र थे इमारे पिता भी। यह महात्मा बाल्यावस्था में पिता माता का वियोग, घर की निर्धनता के कारण जगत चिता में उसी समय फंस गए जिस समय खेल कूद के दिन होते हैं । विजय ग्राम से डेढ़ कोस मवैया गांव है, वहां एक पं० दयानिधि (बाबा) रहते थे। उनसे पढ़ने लगे । वर्ष दिन पढ़ा, फिर एक पेड़ पर से गिरे, पांव टूटा नहीं पर लड़खड़ाने लगा इससे कई महीने पड़े रहे, फिर कानपुर चले आए। यहां यों शिवप्रसाद जी अवस्थी और रेवतीराम जो त्रिपाठी (प्रयागनारायण जी के पिता) ने उन पर बड़ी कृपादृष्टि रक्खी। कुछ दिन पीछे अवध के बादशाह श्री गाजीउद्दीन हैदर के दरोगा जनाब आजमअली खां साहर के दोवान श्री महाराज फतेहचंद जी के यहां नौकर हुए और अवध प्रांत के इब्राहीमपुर मामक गांव में काशीराम के बाजपेयी वंश में विवाह किया। हमारी माता श्री मुका- प्रसाद जी बाजपेयी की कन्या थी। यह ब्याह और यह नौकरी इन्हें ऐसी फलीभूत हुई कि (अपूर्ण प्रकाशित ) खं० ५, सं० २, ३, ४ ( १५ सितंबर, अक्टूबर, नवंबर १० सं०४)