पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अहह कष्टमपंडितता विधेः हाय भारत ! म जाने तुम से देव कब तक रुष्ट रहेगा। हा भगवति देवनागरी ! तुम्हारे भाग्य न जाने कब तक ऐसे ही रहेंगे। हाय वेद से लेके आल्हा तक को आधार हमारी प्यारी सर्व गुणागरी नागरी के अदृष्ट मे न जाने क्या लिखा है कि इस बिचारी को वृद्धि के लिए हम चाहे जैसा हाय हाय करें पर सुनने वाला कोई देख ही नहीं पड़ता! हाय, राजा अन्यदेशी होने के कारण इसके गुण नहीं समझते। प्रजा मूर्ख और दरिद्र होने से इसकी गौरवरक्षा नहीं कर सकती पर परमेश्वर को हम क्या कहे जो सवंश अंतर्नामी, दीनबंधु इत्यादि अनेक विशेषणविशिष्ट होने पर भी हमारी मातृभाषा को मूला बैठा है । हा जगदीश! क्या तुम्हारी दया से भी हमारे पाप बढ़ गए । हाय हिंदुस्तान ! क्या तुम्हारी स्थिति कागज पर भी दुष्ट देव को अखरती है । अरे भाग्यहीन हिंदुस्तानियों ! क्या तुम्में अपनी भाषा तक की इतनी ममता नही रही कि दस बीस छोटे मोटे समाचारपत्रों को कायम रख सको ! हाय ! जब हम अन्य भाषाओं मे सैकड़ों पत्रों के इसी देश में बहुत मूल्य होने पर भी हजारों ग्राहक देखते हैं तब हिंदी के अभाग्य पर रोना आता है कि इसी बिचारी ने न जाने क्या अपराध किया है कि किसी भाषा से किसी बात मे कम न होने पर स्वयं अपने देश में इसके थोड़े से अत्यल्प मुल्य के पत्र मही तिष्ठति निपाते। पाच ही सात वर्ष के बीच मे 'उचितवक्ता', 'भारतेन्दु', 'भार- तोदय' आदि कई उत्तमोत्तम पत्र स्मृतिपथ को सिधार गए । जो थोड़े से एडिटरों के रक्त से सिंचित हो के बच भी रहे हैं उनके भी जीवन मे हजार व्याधि लगी हुई हैं ! क्या यह भारत के लिए महाशोक और हिंदुओं के हक मे बड़ी भारी लला का विषय नहीं है ? हम समझे थे हमारे 'ब्राह्मण' ही के ग्रह मध्यम हैं पर तीन जनवरी का हिंदुस्थान' देख के और भी खेद हुवा कि यह विचारा फरवरी से समाप्त ही हुवा चाहता है । केवल एक सौ बीस ग्राहकों के आसरे दैनिक पत्र के दिन चले ? तीन वर्ष चला भी तो कुछ हिंदुस्तानियों की करतूत से नहीं केवल श्रीमान विशेनवंशभूषण समर विजयी राजा राम- पाल सिंह महोदय के उत्साह से चला। यदि वे प्रतिमास सैकड़ों रुपए की हानि सह के इसे जीवित न रखते तो अब तक कब का हो बीता होता। पर वे कब तक इस नित्य को हानि को अंगेजें । इसी से हतोत्साह होके विज्ञापन दे दिया है कि यदि ४०० ग्राहक जनवरी भर मे हो जायं तो इसे रख सकते हैं नहीं तो बंद कर देंगे। हमारी समझ में एक मास में इतने सच्चे ग्राहक होना असमंजस है . अब हमारी भाषा के एकमात्र दैनिक पत्र रहने की आशा नहीं है। हा भारत ! क्या बीस कोटि हिंदुओं में से १०) साल बर्चने वाले चार सौ लोग भी नहीं हैं ! हा! हा!! हा!!! खं० ५, सं० ६ (१५ जून ह० सं० ५)