पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२१३

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समय का फेर] १९१ सामने लिख लिखा के देगा तथापि जी में समझेगा कि किसी प्रकार कुछ भी बिगड़े तो एक २ के दो २ लेना चाहिए, ऊपर से कायल करना चाहिए। इस कलजुगहापम का कारन यह है कि सभी लोग अपनी और पराई इन्नत एक समझते थे पर अब जिसे देखो अपनी २ पड़ी है, दरिद्र दिन २ बढ़ता जाता है, लोगों के दीन धरम का ठिकाना नहीं है, फिर किस का कौन होता है ? तुम लोग एका २ चिल्लाया करते हो पर हम जानतें भी न थे कि एका किसे कहते हैं । तिस पर भी अपने गांव की लड़की जहाँ ब्याही होती थी वहां के कुएं का पानी न पीते थे । किसी का समधी दमाद आता था तो उसे अपना निज संबंधी समझ के तन मन धन से सेवा में हाजिर रहते थे । गांव में जिस के यहाँ बरात आतो थी उसे आटे की तो चिता ही न होती थी, सभी भलेमानस दस २ पांच २ सेर पिसवा के भेज देते थे। घी दूध जिसके यहां होता था वह पहुँचा देता था, बरंच कभी २ रूपये की जुरूरत पड़ने पर भी कोई कानोंकान न जानता था, लड़की वाले के यहां पहुंच जाता था। इसी से एक दूसरे के लिये जी देने को तैयार रहता था। क्या तुम भी ऐसा करते हो कि छाती ठोंक २ के लेकचर ही देना जानते हो । गाढ़ा समय आने पर रांध पड़ोसो हेतो ब्यौहारी की धूल न उड़ावो यही गनीमत है। काम पड़ने पर अपने पास से देना दूर रहा दूसरे को गांठ न टटोलो यही बहुत है। इसी से कोई तुम्हारे किसी अवसर पर भी साथ नहीं देता। कौन साथ दे, कही एक हाथ से ताली बजती है। और सुनो, अगले दिनों में सब भलेमानस ही न होते थे। बेहाड़े फक्कड़ भी बहुत से थे, जिन्हें कमाने धमाने को कुछ फिकर न रहती थी, पुरुखों की कमाई अथवा जजमानी प्रोहिती की आमदनी से गुजारा चला जाता था। हर घड़ी दो चार टेलु हों को लिये गपशप हाँका करते थे या चंग बजाया करते थे। सांझ सबेरे बूटी छानने तथा गांजा चरस उड़ाने के सिवा कुछ काम न रखते थे ! आम लोग उनकी सोहबत को अच्छा न समझते थे पर हमारी जान में इस जमाने के भलेमानसों से उनकी जिंदगी लाख दरजे अच्छी थी क्योकि उनको अपने कुल के आचार का इना ध्यान रहता था कि ब्राह्मण क्षत्री का लड़का चाहे जितना बिगड़ जाय पर नशा वही खाता पीता था जो उसकी जातिमें चला आया हो। इसके विरुद्ध इन दिनों (जिसे तुम सुधरा हुमा समय कहते हो ) कहो जितने बाजपेयी और उनसे भी बढ़ के संन्यासी हम दिखला दें जो जाहिरा में तो बड़े २ पाखंड रचते हैं पर छिप २ के होटलों में छत्तिसों जाति साथ एक ही गिलास में मदिरा पीते और सब खब अखन खाते हैं तथा इस कपट रीति से सारे मित्रों और नातेदारों का धरम लेते हैं। यह बात उन फक्कड़ में लाख कोस न थी। इसके सिवा बंधुभाव उनमें इतना था कि पि बहुधा किसी को कुछ माल न गिनते थे तो भी अरने पड़ोस के तथा जाति के वृद्ध पुरुषों को, जिन्हें चचा ताऊ इत्यादि कहते थे, उनका इतना संकोच करते थे कि वे नाराज होके चाहे जैसी कहनो अनकहनी कहले पर उत्तर देना कसा, आंखें सामने न करते थे तथा जिन्हें अपना मित्र संगी भाई हितैषी इत्यादि मानते थे उनके लिये जान तक देने को तैयार रहते थे।