पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२५७

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पौराणिक गूढार्थ ] २३५ संसार के सारे झगड़े केवल परमेश्वर का भजन अथवा जगत का उपकार करने के लिये छोड़ दिये थे, जिन्होंने अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग विद्या पढ़ने और ग्रंय बनाने में बिताया था, उनकी कोई छोटी से छोटी बात भी निरर्थक नही है। फिर पुराण तो बड़े २ ग्रंथ हैं। उनमें ऐसी बातें क्योंकर हो सक्ती हैं जो आत्मिक, सामाजिक अथवा शारीरिक लाभदायिनी न हों। इस लेख में हम थोड़ी सी उन्हीं बातों का मुख्य अभि- प्राय दिखाया चाहते हैं जिन्हें लिखने वालों ने बड़ी बुद्धिमत्ता से हमारे ज्ञान, मान, कल्याण की वृद्धि के लिये लिखा है, पर कविता न पढने के कारण हम समझते नहीं हैं और बिना समझे बूझे दांत बाया करते हैं। ईश्वर, धर्म, विद्या, बीरतादि का वर्णन, शिव दुर्गा इत्यादि के चरित्र यद्यपि हम मनुष्यों के रूप रंग चाल व्यवहार से विलक्षण हैं पर ऐसे नहीं हैं कि उनके श्रवण मननादि से कोई न कोई उपदेश प्राप्त हो । हां, यदि हम उधर ध्यान हो न दें, बरंच हठ के मारे हंसी उड़ावें तो पुराणो का क्या दोष, है हमारी ही मूर्खता है। यदि कुछ दिन काव्य पढ़िये और कल्पना शक्ति से काम लेना संखिये अथवा हमारी निम्नलिखित पंक्तियों को ध्यान से देखिये और ऐसी ही ऐसी बातों में बुद्धि दौड़ाइये तो निश्चय हो जायगा कि पुराणों की कोई बात मिथ्या नहीं है, बरंच जहां २ मिथ्या की भ्रांति होती है वहां गूढार्थ भरा हुवा है, जिसे अंगीकार किये बिना भारत का कल्याण नहीं हो सकता। यह सब पौराणिक भलीभांति जानते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव इत्यादि नाम मिन्न २ हैं, पर हैं वास्तव में सब एक ही परमात्मा का स्वरूप और उनके हस्तपादि भक्तों की उमंग एवं कवियों की कल्पना मात्र है किंतु है सब निरवयव जगदीश्वर का वर्णन । इसी प्रकार दुर्गा, काली इत्यादि देवियां भी ईश्वर को शक्ति हैं जो किसी ति प्रथक नहीं हैं । जैसे पंडित जी का पांडित्य, मौलवी साहब की लियाकत इत्यादि पडित जी तथा मौलवी साहब से भिन्न कोई वस्तु नहीं हैं वैसे ही सरस्वती ( विद्या शक्ति ) दुर्गा (वीरताशक्ति) इत्यादि भी ईश्वर से पृथक कोई सावयव पदार्थ नहीं है। रहे इनके रूप एवं काम सो यद्यपि कभी २ ऊपरी शब्दों में सृष्टि क्रम से विलक्षण नान पड़ते हैं, पर उनके विषय में तर्क वितर्क उठाना निरी मूर्खता है। क्योंकि किसी भाषा के मुहाविरे तथा किसी देश के कवियों की कविता का ढंग एवं उनकी मनसा को जाने बिना झट से कह उठना कि 'झूठ है', 'ऐसा नहीं हो सकता', अथवा ऐसी २ कुतके उठाना कि 'ब्रह्मा के चार मुंह हैं तो सोते क्यों कर होंगे', एवं 'सहस्त्र शीर्पा' वाली ऋचा पर कहना कि 'शिर भी सहस्त्र और आंखें भी सहस्त्र ही हैं तो सावयव उपासकों का ईश्वर काना ठहरता है क्योंकि एक शिर के साथ दो आँखें होने का नियम है' इत्यादि निरी नीचता है। ऐसी बातों से लाभ तो केवल इतना ही मात्र है कि कच्चे विश्वासी तथा बुद्धिहीन लोग अपने धर्म को अप्रमाण समझ के हमें सच्चा समझने लगें तो असंभव नहीं। पर हानि इतनी होती है कि कहते जी थर्राता है । कहने वाले की दुष्टता का प्रकाश, सुनने वाले को निज धर्म से अविश्वास अथवा आपस के हेल मेल