पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२६७

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अब गतो का काम नहीं है ] २४५ अनर्थ हैं । संसार को हमारे पूर्वजो ने दुःखमय माना है-'संमारे रे मनुष्या बदत यदि सुवं म्वल्पमप्यस्ति किंचित्' । इसका कारण यही लिखा है कि इसका मस्तित्व द्वंद पर निर्भर है। अर्थात् मरना और जन्म लेना जब तक रहता है तब तक शाति नहीं होने पाती। इससे यत्नपूर्वक इन दोनो ( जन्म मरण ) से छूट जाय तभी सदा सुखी अर्थात् मुक्त होता है। हमारे प्रेमशास्त्र में भी यही उपदेश है कि इस द्वंद्व ( मरण जीवन ) मे से एक का दृढ निश्चय कर ले वही निर्द्वद अर्थात् जीवनमुन्न होता है। या तो प्रेम समुद्र मे दूध के मर जाय अर्थात सुख दुःख, हानि लाभ, निन्दा स्तुति, स्वर्ग नर्कादि की इच्छा, चिन्ता, भय इत्यादि से मृतक को नाई सरोकार न रखे, या प्रेमामृत पान करके अमर हो रहे । अर्थात् दु.ख, शोक, मरण, नर्कादि को समझ ले कि हमारा कुछ कर ही नहीं सकते। बस इसी से सब लोक परलोक के झगटे खतम हैं । यदि इन शास्त्रो के बडे २ सिद्धान्तो में बुद्धि न दौड़े तो दुनिया मे देख लीजिये कि जितनी बातें दो है अर्थात एक दसरी से सर्वथा असम्बद उनमे से एक रख जाय तो कभी किसी को दख न हो। या तो गदा सुख ही मुख हो तो जी न ऊबे या सदा दुख ही दुख बना रहे तो न अखरे-दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना' सदा लाभ ही लाथ होता रहे तो क्या ही कहना है। नोचेत् सदा हानि ही हानि हो तो भी चिंता नहीं । आखिर कहां तक होगी ? इसी प्रकार संयोग वियोग, स्तुति निन्दा, स्वतंत्रता परतंत्रता इत्यादि सबमे समझ लीजिये तो समझ जाइएगा कि दो होना ही कष्ट का मूल है। उनमे से एक का अभाव हो तो आनन्द है अथवा जैसे बने वैसे दोनो को एक कर डालने मे आमन्द है । भारत का इतिहास भी यही सिखलाता है कि कौरव पांडव दो हो गये अर्थात् एक दूसरे के विरुद्ध हो गये इसीसे यहा की विद्या, वीरता, धन, बल सब मे घुन लग गया । यदि एक हो रहते तो सारा महाभारत इतिश्री था। अंत मे पृथिवीराज जयचन्द दो हो गए इससे रहा सहा सभी कुछ स्वाहा हो गया। यदि अब भी जहाँ २ दो दखिये वहां २ सच्चे जी से एक बनाने का प्रयत्न करते रहिये तो दो साथ ही सारे दोष, दर्भाव, दुःख दूर हो जायगे । नही तो दो नो कुछ है सो हम दिखला हो चुके । इनसे जो कुछ होता है सो यदि समझ में आ गया हो तो आज ही से अपने कर्तव्य पर ध्यान दो नही तो इस दाताकिटकिट को जाने दो। खं० ६, सं० ९ ( अप्रैल ह• सं० ६) अब बातों का काम नहीं है हिन्दी ही अक्षर सब भक्षरो से महज और शुद्ध है । हिन्दी ही भाषा सब भाषाओ से उत्तम है। विशेषतः हिन्दुओ का सञ्चा गौरव, सच्चा लौकिक पारलौकिक सुख सौभाग्य इसी पर निर्भर है। इन बातो को हम और हमारे सहयोगी गण एक बार नहीं सौ बार सिद्ध कर चुके हैं इससे बार २ लिखना पढ़ना व्यर्थ है। यदि किसी को इसके