पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२७०

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अष्ट कपारी दारिद्री जहां जायं तहं सिद्धि यह कहावत हमारे यहां बहुत दिन से प्रसिद्ध है और ऐसी प्रसिद्ध है कि लड़के, बूढ़े, पढ़े, अनपढ़, स्त्री, पुरुष सभी जानते हैं। पर खेद है कि देश के अभाग्य ने जहां सब उत्तम बातों का मूल नाश कर दिया है वहां ऐसे २ उपर्युक्त उपदेशों पर ध्यान देने की बुद्धि भी खो दी है । नहीं तो इस कहतूत में (जिसे लोग बहुधा दूसरे का उपहास करने में प्रयुक्त करते हैं) ऐसी अच्छी शिक्षा है कि संसार का कोई काम इस पर चलने से कभी रुक ही नहीं सक्ता और किसी व्यवहारिक वस्तु के अभाव से उत्पन्न कष्ट की संभा- बना ही नहीं रहतो। इस प्रकार को लोकोक्तियां बड़े २ बुद्विमानों के अनुभूत सिद्धांत है पर उन में से बहुत सी प्राचीन इति हासों के मूल पर बनी हैं, जैसे-'घर का भेदिया लंकादाह', और बहुरी अलंकारिक रीति पर वणित हैं, यथा-'जो गुड़ खाय सो कान छिदावे' । इस से उनके अक्षरार्थ मात्र से गूढार्थ समझना कठिन होता है, अतः यदि सर्वसाधारण लोग उनका अनुसरण न कर सकें तो कोई आक्षेप का विषय नहीं है । उनके लिये हमें अपनी तथा अपने सहयोगियों की लेखनी से उलहना है जो स्वयं समझती है और दूसरों को समझा सक्ती है किंतु समझाने की ओर ध्यान न दे के देश को आंत- रिक दशा सुधारने में बहुत से विध्न बने रहने देती है। पर ऐसे २ मसलों पर ध्यान न देने के लिये हम देशी मात्र पर दोष लगावैगे जिनका समझना कुछ कठिन नहीं है । फेवल अक्षरों से अर्थ निकल आता है और बर्ताव में लाने से अपना तथा पराया भी बहुत सा हित हो सकता है। फिर भी लोग जान बूझ के हाथ पर रक्खे हुए अमूल्य वाक्य रत्नों का तिरस्कार करते हैं उपर्युक्त उपाख्यान ऐसा ही है जिस को सब लोग सहज में समझ जाते हैं पर ध्यान न दे के अनेक ठौर अनेक हानि सहते हैं। कौन नहीं जानता कि अष्ट कपारी उस मनुष्य को कहते हैं जो वेकाम बैठना कभी न पसंद करता हो और कैसा ही उलटा सीधा, छोटा मोटा, सहज कठिन हो, समझे बिन समझें, निर्भय निस्संकोच निर्लन भाव से मुड़ियाय लेता हो। अपनी बुद्धि तथः बल से न हो सके तो चाहै जिस श्रेणी के मनुष्य से सहायता मिलती हो उस से मित्र बन के, चेला बन के, सेवा कर के, प्राप्त करने में न चूकता हो । तथा दरिद्री एक तो वह व्यक्ति कहलाता है जिसके पास बन न हो, दूसरे उसको कहते हैं जो यह सिद्धांत रखता हो कि जहां तक बस चले वहां तक, 'चमड़ी जाय दमड़ी न जाय'। घर कोई तुच्छ से तुच्छ वस्तु वृथा म जाने दे और बाहर की सड़ी से सड़ी चीज यदि मांगे जांचे, छल कपट किये सेंत में मिले तो क्या ही बात है, नहीं कुछ स्वल्प मूल्य पर भी प्राप्त होती हो तो छोड़े नहीं। वास्तव में यह दोनों गुण ( अष्टकपारीपन और दरिद्रीपन ) ऐसे हैं कि गृहण करने में कुछ कठिनाई नहीं है और काम बड़े २ निकलते हैं। और यदि विचार के देखिये तो यह गुण ईश्वर को भी इतने प्रिय हैं कि वह त्रैलोक्य का स्वामी होने पर भी, लक्ष्मीपति होने पर भी, दीन- बन्धु कहलाता है तथा कोई निज का काम न रहने पर भी सारे संसार के सृष्टि स्थिति संहारात्मक बखेड़े मुड़ियाये रहता है । बरंच पुराणों का तत्व समझिये तो जान जाइयेगा कि वेदोद्धार, दैत्यसंहार एवं प्रेमलीला विस्तार के लिये मत्स्य, कच्छप, बरंच शूकर बनने तथा भिक्षा मांगने ( वामनावतार ) तक में बन्द नहीं है। इसके अतिरिक्त जितने लोग