पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२७८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२५६ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली हैं कि वे किसी के भले बुरे में नहीं रहते, उनका भी चरित्र विचार के देखिए तो या तो यह पाइएगा कि संसार में रह के किसी की सहायता लेने वा किसी को साथ देने की योग्यता से रहित हैं अतः व्यर्थजीवी हैं, पशुओं की भांति केवल आहार निद्रादि में जीवन बिताते हैं, अतः बुराई करते हैं अथवा जगनाल से अलग रह के भगवान के जीवित संबंध में दतचित्त रहते अस्मात् अपनी आत्मा के लिए सर्वोच्च श्रेणी की भलाई कर रहे हैं। सारांश यह कि, "विधि प्रपंच गुण औगुग साना' के अनुसार सभी भलाई बुराई दोनों में बस रहे हैं। शुद्ध निविकार अवेला परब्रह्म हैं और ऐसा कोई कभी कही नहीं जनमा जिसने जन्म भर भलाई ही अथवा बुराई हो की हो । जिन्हें आप बड़ा भला मनुष्य कहते हैं वे भी कभी २ कोई ऐसी वुगई कर उठाते हैं जिसको 'मुनि अघ नरकहु नाक सकोरो' का नमूना बनाना अत्युक्ति नहीं है। इसी प्रकार जो कुमानुस कहल ते हैं वे कमी २ बड़ी भारी भरूमंसी का उदाहरण बन जाते हैं। ऐसी दशा में यदि भलाई के लिए प्रशंसा का पुरस्कार अथवा बुराई के निमित्त दंड अथवा तिरस्कार न दिया जाय तो किसी को पुन्य कार्य में उत्साह एवं दुष्कर्म में अरुचि उपजने की संभावना न रहे और स्वतंत्राचार इतना फैल जाय कि मानव मंडली किसी बात में संभलने के योग्य रही न सके। क्योंकि जिन कामों को बुद्धिमानों ने बुरा ठहराया है वे बहुधा ऐसे प्रलोभनपूर्ण और स्वल्पारंभ होते हैं कि अनेक लोगों के चित्त लालच में लगा के अपना वशवर्ती कर लेते हैं और अंत को दुःख दुर्दशा दुर्बलता के गढ़े में ऐसा दबा देते हैं कि उकसना कठिन हो जाता है। इसी से पूर्वकाल के लोकहितैषो दूरदर्शी महात्माओं ने यह रीति निकाली थी कि व्यवहारकुगल लोग समय २ पर एकत्रित हो के मानव जाति की साधारण जनता के उचितानुचित कृत्यों का यथोचिन विचार एवं निर्धार करते रहा करें जिसमें समाज के मध्य अच्छा काम करने वालों का सनमान और दुराचारियों का अपमान और एतद्वारा भलाइयों की वृद्धि तथा बुराइयों का ह्रास होता रहै, जो प्रत्येक जाति के सुख सौभाग्य सुदशा और सुयश का मूल है। इस प्रकार के सामाजिक समागम को पंवायत अर्थात् पंच लोगों की सभा और पंच अर्थात् जनसमुदाय के कार्याकार्य निर्णय करने वाले मुखिया लोगों को चतुर्धरीण वा चौधरी अर्थात् चार जनों ( समुदाय ) का भार धारण करने वाला अथवा निर्धार बारक कहते हैं। इन मुखियों के द्वारा आपस के झगड़ों का निपटारा, विजातियों के अत्याचारों से छुटकारा, रीति का सुधार, नीति का निर्धार, दोषियों का दंड, पीडितों का निस्तार, व्यवहार में सुविधा और सिद्धि, धर्म का प्रचार और वृद्धि इत्यादि २ समी कुछ बड़ी सरलता एवं सुगमता से हो सक्ता है। जब तक जिस देश का भाग्य उदित रहता है तब तक वहाँ इस चाल का पूर्ण प्रचार बना रहता और पंच परमेश्वर की दया से सब जाति आना २ हित साधन करती रहती है। सतयुग, त्रेता और द्वापर में जब अपने देश के पूर्णाधिकारी हमी थे तब हमारे पूर्वज महर्षिगण, जहां कोई राजा, प्रजा, ईश्वर, जीवन, पिता, पुत्र, सजाती, बिजाती इत्यादि के संबंध की उलझेड़ देखते थे वा कोई नबीन घटना होती थी वही काशी प्रयाग नैमिषारन्यादि में एकत्र हो के