पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशावतार जो केवल मुख से ईश्वर २, ब्रह्म २, वेद २, धर्म २ इत्यादि कहा करते हैं पर मानसिक नेत्रों से कभी उसके दर्शन करने की चेष्टा नहीं करते, जिनके हृदय भूमि केवल संसारिक चिता अथवा मतवाद के तर्क वितर्क की बिहारस्थली बनी रही है, भगवत्प्रेम लीला के योग्य न कभी थी न होने की संभावना है, जिन्हें आर्य कवीश्वरों को रसमयी वाणी का गूढार्थ विदित होना दुर्घट है, वही लोग अवतारों के विषय में नाना संदेह उठाया करते हैं। पर जो जानते हैं कि परम स्वतंत्र अनन्त नाम रूप गुण स्वभाव विशिष्ट परमात्मा किसी बंधन में बद्ध नहीं हैं, केवल अपनी अप्रतयं इच्छा से जब जैसा चाहता है कर उठाता है, उन्हें एतद्विषयक संदेह कभी नहीं उठने के। जो प्रेमेश्वर अपने भक्तों की रुचि रखने मात्र के लिए उनके मनोमंदिर में उन्हीं की इच्छानुसार रूप धारण करके नाना प्रकार की लीला दिखलाया करता है उसका विशेष २ समयों पर विशेष २ कार्यों के लिए रूप विशेष धारण करना क्या आश्चर्य है ? मतवादी कहा करें कि वह दिक्कालाधनवच्छिन्न होने के कारण एक देश में एक काल पर क्यों कर आबि- र्भाव कर सकता है ? पर बुद्धिमान जानते हैं कि सर्वशक्तिमान शब्द का अर्थ ही यही है कि जो बातें ताकिक ज्ञान के द्वारा असंभव हों उन्हें कर दिखावै । सर्वव्यापक भी बना रहना, निरवयव भी बना रहना और किसी स्थान पर किसी रूप में प्रकाशित भी हो जाना आप की समझ में न आवे तो न सही पर आप यह कभी न सिद्ध कर सकेंगे कि ऐसा करना उसकी सामर्थ्य में नहीं है । यदि आप कहें कि तुम उसे मछली, कछुआ इत्यादि बना के उसका उपहास करते हो, तो हम भी कहेंगे कि हमारे प्रेम सिद्धांत में उपहास करना दूषित नहीं है बरंच प्रमिक और प्रेम पात्र दोनों के मनोविनोद का एक अंग है । पर आप उसके समानकारक और मर्यादा रक्षक बनते हुए भी उसे सृष्टि स्थिति संहारक कह के पागल बनाते हैं । क्योंकि अपने हाथ से कोई वस्तु बनाना और आप ही उसे नष्ट भ्रष्ट कर देना बुद्धिमानी का काम नहीं है। पर यहां इन बातों से क्या, यह विषय तो पुराणों का है जो सर्वोत्कृष्ट श्रेणी के काव्य हैं, जिनके समझने के लिए कविता रसिकों की बुद्धि चाहिए, न कि शास्त्राथियों की । शास्त्रार्थों की दृष्टि केवल अपनी बात पुष्ट करने और दूसरे को काटने पर रहती है किन्तु साहित्यवेत्ता यह देखते हैं कि अमुक को अमुक बात का उद्देश्य क्या है। इस रीति से देखिए तो देख पड़ेगा कि जिन्होंने ईश्वर के रूप, कर्मादि का अलंकारिक वर्णन किया है उन्होंने अपनी बुद्धि के वैभव और उसके न्याय, दया, सामर्थ्य, सहिष्णुतादि अनेक गुणों का चित्र खीच दिखाया है । जिनके मन की आंखों में पक्षपात इत्यादि दोष हैं उन्हें दोष ही दृष्टि पड़ते हैं, पर जो सचमुच देख सकते हैं उनसे छिपा नहीं है कि मत्स्यावतार की कथा से यह प्रमाणित होता है कि जैसे अल में मछली की गति का कही अवरोध नहीं है, गहिराई, उथलाई, मंदता,