पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३३५

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दशावतार ] ३१३ रीति से भगवान श्रीकृष्ण परमात्मा का मानवचरित हमें धीरता, बीरता, गंभीरता, व्यवहारकुशलता, समयानुकूलता, ब्रह्मविज्ञतादि आर्योंचित गुणश्रेणी की शिक्षा देता है । यद्यपि अनभिज्ञ लोगों ने उन्हें चोरी और जारी का कलंक लगाया है पर आज तक यह सिद्ध नहीं कर दिखाया कि किस वेद अथवा शास्त्र वा पुराण के किस स्थल पर तथा श्रीमद्भागवत वा महाभारतादि किस धर्म ग्रंथ में कहां पर लिखा है कि उन्होंने अमुक के घर में, अमुक समय, सेंध दे वा भीत फांद के धन वस्त्रपात्रादि अपहरण किया। रहा मक्खन, सो वृज में ( जहां एक २ गोप के घर सहस्त्रावधि गऊ थी वहां ) कौन सी बहुमूल्य वस्तु समझो जा सकती थी। सो भी उन्होंने के वर्ष की संभली हुई अवस्था में कै मन अथवा के सेर चुरा के, किसे हानि पहुँचाई । यदि किसी स्नेही की प्रसन्नतार्थ बाललीला के अंतर्गत थोड़ा सा अल्पमूल्य पदार्थ उठा खाना वा फेंक देना चोरी समझा जाय तो समझने वालों की समझ की बलिहारी है । और सुनिए, सोलह वर्ष की अवस्था मे तो वह मथुरा जी चले गए थे। इतने ही बीच में व्यभिचार भी कर लिया ! सो भी उन दिनों में जब भारत के मध्य भोजन वस्त्रादि के अभाव और नाना रोगों के प्रभाव से छोटो ही अवस्था में यौवन काल में बुढ़ापा न आ जाता था। भला इतनी कच्ची उमर में व्यभिचारी हो के कोई भी हाथी के दांत उखाड़ने, बड़े २ बलिष्ट शत्रुओं को मारने के योग्य रह सकता है ? पर द्वेषियों को कौन समझावै कि भागवत भर में कोई शब्द या संकेत भी ऐसा नहीं पाया जाता जो जारकर्म का द्योतन करता हो । हां, कवियों और प्रेमियों को अधिकार है कि चाहे जैसी पदावली में, चाहे जिस आशय को लिख दिखावै । किन्तु उनके गूढाशय का समझना हर एक का काम नहीं है । अतः योगीश्वर कृष्ण चन्द्र को कामुक समझना लोगों को समझ का फेर है । बुधदेव के जीवनचरित्र से हम यह सीख सकते हैं कि इश्वर २ वेद २ चिल्लाना व्यर्थ है जब तक जीवरक्षा, परोप- कार, धर्मप्रचार के निमित्त आत्मविसर्जन न कर दें। पर एतद्देशिक साधु समुदाय में प्रतिष्टिस बने रहने के लिए हमें मान्य ग्रंथों का मौखिक आदर भी करते रहना चाहिए । कलिक स्वरूप का कर्तव्य तो सब जानते ही हैं कि कलियुग का प्राबल्य दलन और धर्म का पालन करने को भगवान अवतीर्ण होगे । क्योंकि जहां राजा प्रजा सभी स्वेच्छाचारी हों वहां धरती और धर्म परमेश्वर ही के रक्खे रह सकता है । अब बतलाइए अवतार मानने वाले ईश्वर को कौन गाली देते हैं और न मानने वाले कहां का राज्य सौप देते हैं ? फिर किसी के सिद्धांत का खंडन करने की मनसा से अपना समय, दूसरे की शांति, आपस का सुख प्यार नष्ट करना निरा निष्प्रयोजन ही है कि और कुछ ? सं० ७ सं० ११ (१५ जून सं०७)