पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३३६

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स्वतत्रता यह एक ऐसा गुण है कि न किसी के देने से किसी को प्राप्त हो सकता है न कोई किसी से मांग के पा सकता है किंतु पात्रानुसार तारतम्य के साथ आप से आप ही लब्ध होता है । ईश्वर सब बातों में सबसे बड़ा है अतः पूर्ण रीति से वही एक स्वतंत्रता का आधार है और किसी को इस का दावा करना व्यर्थ है। जो लोग कहते हैं कि मनुष्य को ईश्वर ने स्वतंत्र बनाया है वे भूलने हैं क्योंकि कोई किसी के बनाने से स्वतंत्र नहीं बन सकता जब तक वह स्वयं उसके योग्य न बने । मनुष्य अपने निर्वाहार्थ काम करने में भले ही स्वतंत्र हो पर जब कि कामों का फल भोगने में स्वतंत्र नहीं है, उस की इच्छा के विरुद्ध ईश्वरीय नियमानुसार रोग वियोगादि उसे आ ही दबाते हैं तो फिर स्वतंत्रता कहां रही। सिद्धांत यह कि जिसके ऊपर किसी प्रबलतर व्यक्ति का प्रभाव पड़ सकता है वह स्वतंत्र कदापि नहीं कहा जा सकता और ईश्वर या सृष्टि का नियम सब के ऊपर प्राबल्य जमाए हुए है । अतः सचमुच की स्वतंत्रता किसी को नहीं है। हां, भ्रमात्मक विश्व में कल्पना करना चाहिए तो यों कर लीजिए कि जो जितना बड़ा है उसे उतनी ही स्वतंत्रता हस्तगत है जिसे अधिक बड़े लोग छीन सकते हैं, किंतु छोटे लोगों का, जो उसके आधीन हैं अथवा हो सकते हैं, उसकी रीस करना वृथा है अथच न्यायादि के अनुरोध द्वारा उस की स्वतंत्रता में से साझा मांगना एक प्रकार का पागल- पन है। जब कि आप स्वल्प सामर्थी वा सामर्थ्य शून्य हो कर स्वतंत्र बनना चाहते हैं तो जिसे स्वतंत्रता प्राप्त है वह उसे गंवा बैठना या घटा लेना क्यों चाहेगा ? यों अपनी इच्छा से आप को फुसला देने के लिए चिकनी चुपड़ी बातें बना देना और बात है पर वह कभी संभव नहीं है कि आपके मांगने से कोई पुरुष वा समुदाय वह वस्तु उठा दे अथवा उस में आप को भी साझी बना ले जिसे संसार में सभी चाहते हैं कितु प्राप्त उसी को होती है जो उस के योग्य हो ! यदि आप योग्यता रखते हों अथवा धन जन बल छल इत्यादि की सहायता से योग्य बन जायं तो आप को भी आप से आप मिल रहेगी नहीं तो यांचा वह है जिस ने त्रैलोक्यव्यापी विष्णु भगवान को बावन अंगुल का बना दिया । उसके द्वारा बड़ाई किसे मिल सकती है ? ओर बड़ाई भी वह जिसे बड़े २ लोग बड़ी २ मुड़ धुन करके प्राप्त करते हैं, सो भी पूर्ण तृप्ति के योग्य नही, तीन खाते हैं तेरह की भूख बनी ही रहती है। ऐसे परम बांछनीय अमूल्य पदार्थ के चाहने वालों को तो चाहिए कि अपने अभीष्ट की मानसिक मूर्ति वा काल्पनिक प्राप्ति के हेतु अपना तन मन धन प्रान लोक परलोक बार देने का हौसिला रखें अथवा संच प्रकार के भय संकोच लालच इत्यादि को तिलांजुली दे के अपने को दृढ़ विश्वास के साथ स्वतंत्र समन लें और इस विश्वास में विक्षेर डालने वाले ईश्वर तक को कुछ न समझें। बस फिर प्रत्यक्ष देख लेंगे कि ऐसे गहने वाले से परमेश्वर भी दूर नहीं रह सकता, स्वतंत्रता तो उसके अनंत गुणों में से एक गुणमात्र है। अब जहाँ जिसने जो कुछ प्राप्त किया है इसी सच्चे और हढ़ प्रेम के द्वारा प्राप्त किया है। इसी के अवलम्बन से जो कोई जो कुछ प्राप्त करना चाहे कर सकता है और यदि यह न हो सके तो समझ लीजिए कि