पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३३९

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बच मूर्ख ] ३१७ शरण देते हैं उसके रक्षणार्य अपने मरने जीने की चिंता नहीं रखते। जिन बातों को धर्म समझते हैं उन में पूर्ण रूप से हढ़ रहते हैं। जो बात उनकी समझ में अच्छी जंचा दीजिए कैसे तन मन धन प्रान पन से कटिबद्ध हो जाते हैं। फिर यह मूर्ख क्यों हैं ? पढ़े नहीं हैं तो न सही पर अपना भला बुरा समझने और देश काल के अनुसार चलने में किसी पढ़ आ से कम नहीं बहक सैकड़ों कपटी, कामी, चोर और उल्टी समझ वाले विद्याभिमानियों से हजार दरजे अच्छे हैं । अतः इन्हें मूर्ख कहै सो मूर्ख । देशोद्धार के लिए जो बातें वस्तुतः परमावश्यक है वे यदि इन के मध्य प्रचार की जायं तो वह फल निकले जो शहर के लाला भैयों को शिक्षा देने २ सात जन्म नहीं निकल सकता। हमारे इस वाक्य में जिसे सन्देह हो वह स्वयं परीक्षा कर देखे फिर देख लेगा कि यह कदापि मूर्ख नहीं है। मूर्ख, बरंच बनमूर्ख, वास्तव में वह हैं जिन्हों ने बरसों बड़ी २ कितावें रटते २ मास्टर का दिमाग, बाप की कमाई और अपना बालविनोद स्वाहा कर दिया है और नाम के आगे पीछे ए० बी० सी० डी. भर का छोटा वा बड़ा पुछल्ला रुगवा लिया है, पर परिणाम यह दिखलाया है कि हिंदी का अक्षर नहीं जानते, पर इतना अवश्य जानते हैं कि वेदशास्त्र पुराणादि का वाहियात, जंगली असभ्यों के गीत, झूटी कहानी हैं । ईश्वर धर्म एवं परलोक सब बे उकूफों को गढ़त हैं। अथवा कुछ हैं भी तो कब ? अब कोई यूरप अमेरिका के महात्मा श्री सुख से आज्ञा करें तब । क्योंकि हिंदु- स्तान तो अगले जमाने में बनमानुसों की बस्ती थी और अब भी हाफ सिबिलाइज्ड मुल्क है, इस में मानने लायक मजेदार बातें कहां ? भोजन देखिए तो सात समुद्र पार से आया हुवा, महीनों का सड़ा हुवा, जाति कुजाति का छुआ हुवा, जूठे बरतनों में रक्खा हुवा, खज्ज अखज्ज सो तो चौगुने दामों पर भी सस्ता औ स्वादिष्ट है परन्तु स्वीर, पूरी, लड्डू, कौड़ी, रबड़ी, रायता आदि शायद मुंह से छू जायं तो पेट फाड़ डालें। ताजा मांस अच्छी तरह घी और मसाला देकर घर बनाया जाय तो बुरा न बनेगा पर सड़े हुए मछलियों के अचार का मजा सा कहाँ। अंगूर, मुनक्का आदि का आयुर्वेद की रीति के अनुसार खीचा हुवा आसव नशे में भी अच्छा होगा और पुष्टि- कारक भी होगा। किंतु वह टेस्ट कहाँ जो खानसामा की दी हुई, साहब बहादुर के द्वारा प्रसादी की हुई, साढ़े तीन रुपए की बोतल भर ली हुई सोने की सी रंगी हुई ग्राण्डी में मिलता है। परमेश्वर केन साहब का भला करे जिन्हों ने यह ठूत मिटाने पर कमर कसो है, नहीं तो मनु, पराशर, व्यास, बालमीकि आदि जंगलियों को कौन सुनने बाला था। यह कौन देखने वाला था कि यही सभ्यता की जनमघट्टी, धन, बल, धर्म, प्रतिष्ठा, लला बरंच प्राण तक की हरनेहारी है । भेष की ओर दृष्टि कीजिए तो बाजे २ अंगरेज तो कभी २ मुरादाबादी चारखाना और भागलपुर टसर भी पहिन लेते हैं पर हमारे जेण्टिलमेन के शिर पांव तक एक तार भी देशी सूत का निकल आवै तो क्या मजाल | कोट, बूट, पतलून, घड़ी, छड़ी, लंप, कुरसी, मेज जो देखो सो विलायती । देशी केवल चेहरे का रंग मात्र, उसमें भी विलायती साबुन और चुम्ट की बू भरी