पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३६६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली दुनिया देखी है तथा अपने सन्तान का सच्चे जी से कल्याण चाहना प्राणीमात्र का स्वभाव है एवं वैवाहिक बन्धन ऐसा है कि जन्मपर्यन्त उस का दृढ़ रहना ही श्रेयस्कर है। इन नियमों को दृष्टि में रख के विचार कीजिए तो जान जाइएगा अपनी संतति के भविष्यत हिताहित का ज्ञान जितना वृद्ध पिता माता को हो सकता है उतना उन के युवा लड़का लड़को को होना कठिन है । अत: बर कन्या की इच्छा की अपेक्षा उन के जनक जननी की इच्छा अधिक श्रेष्ठ है। हां, उनके अभाव में दम्पति की इच्छा का अनुसरण ठीक हो सकता है। सिद्धांत ह कि मां बाप की इच्छा से विवाह होना दूषित नहीं है बरंच बर कन्या की इच्छा से कुछ अधिक ही गौरवमान है। जो लोग ब्याह काज की धूम धाम को बुरा समझते हैं उन्हें भी समझना चाहिए कि पुत्र जन्म और विवाह के समय मनुष्य मात्र का चित्त उमगता है, उसे रोकने की शक्ति मौखिक उपदेशों को तो है नहीं। हां धीरे २ स्वभाव बदलते २ जाति स्वभाव न जाय तो बात न्यारी है। सो इस की भी सम्भावना असाध्य नहीं तो कष्टसाध्य तो है ही। फिर इस विषय में कोलाहल से क्या होना है ? इस के अतिरिक्त ऐसे अवसर पर जो व्यय होता है वह अपने ही जामातृ, अपनी ही पुत्रबधृ, अपने ही समधी तथा अपने ही वा उनके ही, जो वस्तुत: अपने हैं, भयाचारों, नातेदारों वा कुल पुरोहितो को दिया जाता है। अथच ऐसों को देना ऐसा नहीं है कि किसी न किसी समय लौट के न आ सके । जिन्हें हम देते हैं उन्हें अपना विश्वासपात्र व्यवहारी बना लेते हैं। आज जिसे हम ने दश रुपए दिए वह कल परसों हमारो दुकान पर आवैगा और किसी सौदा कमिश कुछ न कुछ मुनाफा दे जावैगा। इस रीति से जो कुछ हम ने दिया है उस से अधिक फेर पावैगे। अथवा यह नहीं तो भी जिन्हें हम समय २ पर देते रहते हैं वह गाढ़े समय में कहां तक हमारे काम न आवैगे। अपने देश जात्यादि वालों के सच्चे हितैषी जैसे बहुत थोड़े होते हैं वैसे ही ऐसे तुच्छ प्रकृति बाले भी बहुत थोड़े होते हैं जिन्हें अपने सजातीय सदेशीय सहवर्ती की पीर कसक तनिक भी नहीं। फिर बतलाइए तो ब्याह शादी में जी खोल कर खर्च करना क्या बुरा है ? रुपया कहो विदेश हो जाता ही नहीं कि फिर कभी पलट के न आवै । हां, सामर्थ्य से बहुत ही बाहर घरफूंक तमाशा देखना अच्छा नहीं है। सो ऐसा कोई समझदार करता भा नही है। जिसे सुभीता न होगा अथवा आज एक राह से लुटा के कल दूसरी राह से कमा लेने को आशा न होगी वह उठाव- होगा क्या? इस से वित भर खर्च करना भी कोई पाप नहीं है। अब जिन लोगों के मत में लड़कपन का विवाह बलवीर्य का नाशक है और इसी तरंग में वे शीघ्र बोधकारक श्री काशीनाथ भट्टाचार्य को बुरा भला बका करते हैं उन्हें देखना चाहिए कि उक्त ग्रन्थ उक्त विद्वान की निज कृति नहीं है, उन्होंने संग्रह मात्र किया है और पहिले ही कह दिया है कि "क्रियते काशिनाथेनशीघ्रबोधाय संग्रहः' अथच 'अष्टवर्षा भवेद्गौरी' इत्यादि बाल्यविवाह विषयक कतिपय श्लोक कई एक स्मृतियों के हैं फिर उनके लिए काशिनाथ को कुछ कहना "मारूं घुटना फूट आंख" का उदाहरण बनना है। यदि दोष हो तो स्मृतिकारकों का है। सो भी नहीं हैं, क्यों कि उन्हों ने जहां कन्या की विवाह