पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४१०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३८६ [सामारा-पापती इत्यादि सृष्टिकम के विस है। ऐसे कोम यदि शपथ कर पके हो कि हम अपनी हारिक की लकड़ी मरने पर भी न छोड़ेंगे तो हम क्या है ब्रह्मा जी भी उन्हें नहीं समझा सकते, बरंच हमारी समझ में ऐसों का समझाना भी व्यर्थ है । उनके साथ केवल बहते को बहि जानदे धक्के दुइ और' का बर्ताव करके उन्हें उन्ही के भाव को सौंप देना चाहिए। किंतु यदि ये अपनी बुद्धि को हठ और पक्षपात से कलुषित न रख कर विचारशक्ति से कुछ काम लेना चाहते हो तो हमारी बातों को भी लगा कर सुन लें, बह यह है कि- जो विषय बनियनीय है वह मौखिक शास्त्रार्य के द्वारा कदापि समझे समझाए मही जा सकते किंतु अभ्यस्त होने पर अपना पूर्ण प्रभाव प्रत्यक्षतया दिखला देते हैं । यदि हमारे इस बात के विरुद्ध आपको अपनी पंडिताई दिखाने की सामर्थ्य हो तो कृपा करने ईश्वर के समस्त रूप गुण स्वभावों को अब से लेकर सौ वर्ष तक पूरी रीति से वर्णन करके समझा दौगिए । नहीं तो हमारा यही कथन मान लेना पड़ेगा कि भक्ति भक्त और भगवान की बातें बातों का विषय नहीं है कि आपके चाय २ करने से मंडित हो सके। दूसरी बात यह है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वह कुछ भी करने में असमर्थ नहीं है और सृष्टि के नियम यद्यपि अत्यंत हल है किंतु ऐसे हड़ कदापि नहीं हो सकते कि सर्वशक्तिमान के द्वारा विशेष कार्यों के निमित्त समय विशेष पर भी परिवर्तित न हो सके। यदि हमारे इस बवन पर भी आपको शंका समाधान का शोक पर्राय तो पहिले सृष्टि के समस्त नियम बतला दीजिए फिर हम यह सिद्ध कर देंगे कि अमकामुक नियम अमुकामुक रीति से भग्न हो सकते हैं। हमें आशा नही विश्वास है कि आप क्या आपके गुरुदेव भी सारे नियमों का भेद कैसा नाम तक न जानते होंगे। फिर हमारे इस अचल सिद्धांत का खंडन किस बिरते पर कीजिएगा कि "प्रेम में नेम मही होता"। उस पर किसी का वश नहीं चलता। जिसके प्रभाव से हम साक्षात सष्टिकता को अपना वशवर्ती बना सकते हैं उसके द्वारा सृष्टि के नियमों को फेर देना क्या माश्चर्य है। यदि इसमें आपको संदेह हो तो सत् चित् से हमारे प्रेमदेव के दोन दास बन जाइए फिर प्रत्यक्ष देख लीजिएगा कि वह मापके लिए क्या कुछ नहीं करते । पर आपके भाग्य में यह महत्व बदा होता तो अपने पूर्वज महषियों के सदग्रंथों और भगवज्जन के सच्चरित्रों पर दांत निकालने वाली बुद्धि ही क्यों उत्पन्न होती। अतः हमारा यह कहना तो व्यर्थ होगा कि जिस परम पवित्र मदिरा में प्रह्लाद जी अष्टप्रहर प्रमत्त रहा करते थे उसका एक कणशीकर भी पान कर देखिए तो प्रत्यक्ष बोध हो बायगा कि सच्चे भक्तों के लिए अग्नि का शीतल और विष का अमृत इत्यादि हो जाना सृष्टिक्रम के विरुद्ध नहीं है। क्योंकि जब सज्जन मनुष्य अपने आश्रितों की रक्षा के लिये अपनी पूरी सामर्थ्य से काम लेकर सताने वाले का मान मर्दन करने में कोई नियम वा अनियम उठा नहीं रखते तो भक्तवत्सल भगवान ऐसा क्यों न करेंगे ? जो बात प्राणी मात्र के जाति स्वभाव का अंग है वह यदि प्राणपति परमेश्वर करें वो सृष्टिक्रम के विरुख से कही जा सकती है। सृष्टि के नियमों को जिन्होंने स्थापित किया है ये