३८८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावलो. उपना सकती क्योंकि यूरेशियन लोगों के रंग में प्रवकता होती है। फिर इसका कारण क्या है ? यही कि सन् १८५७ वाले उपद्रव के इधर उधर गोरे लोगों का भय और प्रीति बहुतों के हृदय में विशेष रूप से खवित हो रही थी। उस अवसर में जिस साता के चित्त में जिस दशा वाले इंग्लिस्तानी का रूप कुछ काल के लिये बस गया था वैसे ही रूप रंग की संतति उत्पन्न हो गई। अब लोगों के मन में यह बात नहीं रही इस से बहुधा ऐसे लड़के भी नहीं उपजते । इसी प्रकार माता को जैसे स्वभाव के लोगों में रहने का अवसर मिलता है वैसे ही नाति स्वभाव की संतान उत्पन्न होती है और यह नाति स्वभाव किसी प्रकार पूरी रीति से बदल नहीं सकता। यह बात प्रह्लाद जी की जन्म कथा में पूर्ण रूप से पाई जाती है। किसो ग्रंथ के लेख में वा कहीं किसी मूर्ति अथवा चित्रपट में आपने न देखा सुना होगा कि उनका स्वरूप राक्षसों का सा भयानक था। यह क्यों ? कारण यही है कि उनका पिता राक्षसेंद्र पत्नो सहवास के उपरांत ही वन में तपस्या करने चला गया था और उसी दिन देवराज इंद्र ने दैत्यराज का राजप.ट हस्तगत करके उसकी रानी अर्थात् प्रह्लाद जी की माता कयाधु को बंदी बना लिया था और अपने लोक में ले गए थे। जिस समय पति पास नहीं है और प्रबल शत्रु सर्वस्व हरण करने के पश्चात सामने उपस्थित है उस समय अबला बाला वित्त को कैसे सावधान रख सकती है ? ऐसी अकस्मात् आई हुई घोर विपत्ति के समय दूरस्थ प्राणनाथ की मूर्ति विकल चित्त में कैसे स्थिर रह सकती है ? बस इसी से कयाधु के मन में शचीपति का चित्र खिंच गया और वही प्रह्लाद जी का स्वरूप बन गया। अब उनकी स्वभाव की ओर ध्यान दीजिए तो जान जाइएगा कि महापराक्रमी राक्षसनाथ की प्राणप्रिया महारानी जब • सब कुछ खोकर परवश होकर कारावासिनी की दशा में पड़ेगो तो उस अवस्था में परले सिरे का विराग उत्पन्न होना तो एक स्वाभाविक बात थी, ऊपर से सोने में सुगंध यह हुई कि देवपि भगवान् नारद जो परमानुरागी ही नहीं बरंच प्रेमशास्त्र के आचार्य भी हैं, जिनका भक्ति सूत्र न पढ़ने से पशु और पापाण सदृश्य प्रकृति वालो को छोड़ के मनुष्य तो कुछ न कुछ प्रेमशिक्षा अवश्य ही प्राप्त कर सकता है, वह परमात्मा से अभिन्न मित्र महात्मा नित्य उसे अपने अमृतमय उपदेशो से शांति दान करने आया करते थे। फिर भला ऐसी दशा में जो बालक उत्पन्न होगा वह क्योंकर जगत्रष्णा से पूर्ण विरागी औ श्री भगवच्चरण का परमानूरामी न होगा? डाक्टरों के मत से विराग और अनुराग प्रह्लाद जी के नेचर मे भरे हुए थे और ऐसे प्रेमी के ईश्वरीय संबंध में तर्क वितर्क करना पाप ही नहीं बज्रमूर्खता भी है। यदि ऐसों के संरक्षार्थ भी ईश्वर सृष्टि के नियमों को लिए बैठा रहे तो उसके अलौकिक और आश्चर्यमय कार्य क्या उन लोगों के लिए प्रगट होंगे जिनका धर्म केवल मतवाद है ? जब प्रह्लाद ऐसे गर्भनात भक्त Born Lover को ऐसी विपत्ति घेरे कि 'माता यदि विषदद्यात् पित्रा विक्रीयने सुतः राजा हरति सर्वस्वं शरणं कस्य जायते ।' से भी अधिक दुर्गति का सामना नित्य ही बना रहता हो तो परमात्मा कहाँ तक शास्त्रार्थी मतवालों के आक्षेपों का भय करके अपने भक्त की यम से उपेक्षा करेगा ? विष का विषयक
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