पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४७५

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शैशव सर्वस्व]
४५१
 

शेष सर्वस्व ] ४५१ णोदक को शिर पर धारण करें। यों ही विष्णुदेव को परम शैव कहा है। कथा है कि लक्ष्मीपति सदा सहस्र कमल ले के पार्वतीपति की पूजा किया करते हैं। एक दिन एक कमल घट गया तो उन्होंने यह विचार के कि हमारा नाम पुंडरीकाक्ष है, एक नेत्ररूपी पुंडरीक अपने इष्टदेव के पाद पद्म पर अर्पण कर दिया ! सच है इससे अधिक शवता और क्या होगी। शास्त्रार्थ के लतो ऐसे उपाख्यानों पर अनेक कुतर्क कर सकते हैं पर उनका उत्तर हम कभी पुराण प्रतिपादन में देंगे, इस स्थल पर केवल इतना ही कहेंगे कि कविता पढ़े बिना ऐसे लेख समझना कोटि जन्म असंभव है। हां इतना कह सकते हैं कि यह भगवान बैकुंठनाथ को शवता और कैलाशनाथ की वैश्नवता का अलंकारिक वर्णन है । वास्तव में विष्णु अर्थात् व्यापक एवं शिव अर्थात् कल्याण य यह दोनों एक ही प्रेम स्वरूप के नाम हैं पर उप्तका वर्णन पूर्णतया असंभव होने के कारण कुछ २ गुण एकत्र करके दो रूप कल्पना कर लिए गए हैं जिसमें कवियों की वाणी को सहारा मिलै । हमारा प्रस्तुत विषय शिवमूर्ति है और यह शव समाज का आधार है अतः इन अप्रतक्यं विषयों का दिग्दर्शन मात्र करके अपने शव भाइयों से पूछा चाहते हैं कि भाप भगवान गंगाधर के पूजक हो क वैष्णवों के साथ किस बीरते पर द्वेष रख सकते हैं ? यदि धर्म से मतबाद प्रिय हो तो अपने प्रेमाधार को गंगाधर अथच परम भागवत कहना छोड़ दीजिए। नहीं तो सच्चा शैव हो सकता है जो वैष्णवमात्र को अपना देवता समझे। जब परम महादेव जी हैं तो साधारण वैष्णव देव क्यों न होगे ? इसी प्रकार यह भी समझने की बात है कि गंगा जी परम शक्ति हैं। इस से शाक्तों के साथ विरोध रखना भी अनुचित है । यद्यपि हमारी समझ में तो आस्तिक मात्र को किसी से द्वेष रखना पाप है, क्योंकि सब हमारे जगदीश ही की प्रजा हैं। इस नाते सभी हमारे बांधव हैं। विशेषतः शव समूह को वैष्णव और शाक्त लोगों से विशेष संबंध ठहरा अतः इन्हें तो परस्पर महा मित्रता से रहना चाहिए । और सुनिए गाणपत्य हमारे प्रभु के पुत्र को ही पूजते हैं अतः उनके लिए भी सदा शिव से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि 'करह क्रपा शिश सेवक जानी'। सूर्यनारायण शिवशंकर का नेत्र ही हैं-'वंदे सूर्यशशांकह्निमयनं'। फिर क्या नयन शरीर से अलग हैं जो तुम सूर्योपासकों को अपने से भिन्न समझते हो ? भारत की क्या ही सौभाग्य था यदि यह पांचों मत एकता धारण कर के पंच परमेश्वर बनते ! अस्तु अपने २ मत का तत्व समझेंगे तभी सहो ! शिवमूर्ति में अकेली गंगा कितनी हित- कारिणी हैं इस पर जितना सोचिएगा उतना ही कल्याण है । अब दूसरी छवि देखिए । . बहुत सी मूर्तियों के पांच मुख होते हैं जिस से यह जान पड़ता है कि यावत् संसार और परमार्थ का तत्व तो आप चार वेदों में पाइएगा पर यह मत समझिएगा कि वेद विद्या ही से भी उन का रूप गुण अधिक है । वेद उन की बाणी है पर चार पुस्तकों ही पर उन की बाणी समाप्त नहीं हो गई ! एक मुख और है एवं वुह सब के ऊपर है जिसकी मधुर वाणी केवल प्रेमी सुनते हैं । विद्याभिमानो जन बहुत होगा चार वेद द्वारा चार फल ( अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष ) प्राप्त कर लेंगे। पर वह पंचम मुख संबंधी सुख औरों