पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४५४
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४५४ [प्रापमारावण-ग्रंपावली की छबि बसती है और अंतःकरण के करण में नित्य प्रेम डमरू की ध्वनि पूरी रहती है। संसार में जितने सुहावने शब्द सुनाई देते हैं सब उसो डमरू के शब्द हैं, क्योंकि सबको उन्हीं के हाथ का सहारा है। ____ कोई २ मूर्ति अर्दागी होती है, अर्थात् एक ही मूर्ति में एक ओर शिव एक ओर पार्वती देवी । ऐसी झांकी से यह अकथ्य महिमा विदित होती है कि वुह अष्ट प्रहर अपनी प्यारी को बामांक में धारण करने पर भी योगीश्वर एवं मदनांतक हैं। क्या यह सामर्थ्य किसी दूसरे को हो सकती है ? हां, जिस पर उन्हीं की विशेष दया हो। धन्य प्रभो! यह दूध और खटाई की एकत्र स्थिति तुम्ही कर सकते हो। हमारी कवि समाज के मुकुटमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने जनक महाराज की प्रशंसा में कहा है कि 'योग भोग मह राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउं सोई !' यदि गोस्वामी महाराज का हम से दैहिक संबंध होता तो उन से एक ऐसी चौपाई अनुरोध पूर्वक बनवाते कि 'योग भोग दोऊ प्रगट दिखाई। सूचत अति अतवर्य प्रभुताई ।' हमारे कान्यकुब्ज भाई अधिकतर शैव ही है पर देश के दुर्भाग्य से ऐसी प्रतिमा देख के यह उपदेश नहीं सीखते कि 'जो हरि सोई राधिका, जो शिव सोई शक्ति । जो नारी सोई पुरुष है, यामे कतृ न विमक्ति ।' नहीं तो शैवों का यह परम कर्तव्य है कि अपनी गृह देवोसे इतना स्नेह करें कि 'एक जान दो कालिब बन जाये और व्यभिचार के समय यह ध्यान रखें कि हमारे भोला बाबा ने जिस कामदेव को भस्म कर दिया है यदि हम उसी भस्मावशिष्ट मन्मथ के हरायल बन जायेंगे तो हर भगवान् को क्या मुंह दिखावेंगे! कोई २ प्रतिमा वृषभारूढ़ होती है, पर वृषभ का वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं, यहाँ केवल इतना और कहेंगे कि नन्दिकेश्वर ही की प्रीति के वश वे पशुपति अर्थात् पशुओं के पालने वाले कहाते हैं अतः पशुओं का पालन विशेषतः वृषभ तथा उसको अर्धागिनी का पोषण शैवों का परम धर्म है। शिवमूर्ति क्या है और कैसी है यह तो बड़े २ ऋषि भी नहीं कह सक्ते पर जैसी बहुत सी प्रतिकृति देखने में आती है उनका कुछ २ वर्णन किया गया। यद्यपि कोई बड़े बुद्धिमान इस विषय में लिखते तो बहुत सी उत्तमोत्तम बात निकलती पर इतना लिखना भी कुछ तो किसी का हित करेहीगा। मरने के पीछे कैलाशवास तो विश्वास की बात है, हम ने न भी कैलाश देखा है न देखने वाले से भेंट तथा पत्रालराप किया है। हां, यदि होगा तो प्रत्येक मूर्तिपूजक को हो रहेगा। पर हमारी ईस अक्षरमयी मूर्ति के सच्चे सेवकों को संसार ही में कैलाश का सुख प्राप्त होगा इस में संदेह नहीं है। क्योंकि जहां शिव हैं वहीं कैलाश है। तो हमारे हृदय में शिव होंगे तो हृदय नगर कैलाश क्यों न होगा! हे विश्वपते ! कभी इस मनोमंदिर में बिराजोगे ? कभी वुह दिन दिखाओगे कि भारतवासी मात्र तुम्हारे हो जायं और यह पवित्र भूमि कलाश बने!