पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४९१

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सुचाल-शिक्षा]
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सुवाल-शिक्षा . सा दूध अथवा मिठाई आदि खाना चाहिए, फिर दस बजे से बारह बजे तक दाल रोटी पूरी तरकारी आदि, पुनः तीन चार बजे थोड़ा ही सा फल फलारी वा मिठाई आदि और फिर सोने से डेढ़ घंटा पहिले दाल रोटो आदि । खाने पीने में इतना विचार अवश्य रखना चाहिए कि खाद्य पदार्थ शीघ्र पचने वाले और बलकारक हों। बासी एवं बहुत गरम अथवा बहुत ठंढे न हों। कच्चे और जले हुए भी न हों। इस के सिवा जब तक एक बार का खाया हुआ भली भांति पच न जाय तब तक कुछ खाना उचित नहीं है और खाने से निवृत्त होना उस समय योग्य है जब कुछ भूख बनी रहे। भोजन के उपरांत थोड़ी देर बाई करवट लेट रहना अथवा कुछ काल धोरे २ टहलना और तीन चार बार थोड़ा २ पानी पीना पाचनशक्ति के लिये वड़ा उपयोगी है। प्रत्येक ऋतु में उत्पन्न होने वाले शाक फल तथा 'सब प्रकार के अन्न भी स्वास्थ्य को बढ़ाते हैं। अतः इन्हें भी थोड़ा बहुत खाते रहना चाहिए । बहुत लोग स्वास्थ्य रक्षा के विचार से बहुत से पदार्थ छोड़ देते हैं, यह उचित नहीं है। मादक पदार्थ छोड़ के और सभी वस्तु के खाने का अभ्यास रखना चाहिए नहीं तो संयोगवशतः जब कभी कुछ खाने में आता है तब एक तो ca विशेष करता है, दूसरे चित्त को प्रमात्मक कष्ट उपजाता है इस से उत्तम यही है कि विकार करने पर छोड़ भले ही दे, पर खाए सब जाय । विशेषतः इस देश के लिये घृत और दुग्ध सर्वोनम खाध हैं। इसलिए इन्हें अवश्य ही प्रतिदिन खाना चाहिए । और जहां तक हो सके उत्तम से उत्तम ढूंढ़ के लाना चाहिए। यदि किसी कारण से पच न सके तो थोड़े ही थोड़े से अभ्यास बढ़ाना चाहिए अथवा किसी युक्त से खाना चाहिए । वैद्यों का मत है कि यदि दूध न पचता हो तो चूने का पानी मिला के पिया करे और घी न पचे तो दाल में डाल के वा गंथने के समय आटे में छोड़ के खाए । इसी रीति से अवश्य पचने लगेगा। इन नियमों के साथ ही इस का भी बहुत ध्यान रखना चाहिए कि खाने तथा सोने और बैटने आदि का स्थान, पहिनने ओढ़ने बिछाने आदि के कपड़े, खाने पीने आदि के बरतन सदा स्वच्छ रहें। इन में किसी घृणाकारक और दुगंधप्रमारक पदार्थ का संपर्क न होने पावे । बरंच जिधर ऐसी वस्तुओं की संभावना हो उधर जाना भी उचित नहीं है। बस, दिन के काम यही हैं। अब रहे रात्रि के कर्तव्य । उस का नियम यों है कि संध्या समय से अर्थात् सूर्यास्त के कुछ पहिले से पढ़ना-लिखना वा पड़े बैठे रहने का स्वभाव छोड़ देना चाहिए । नगर के बाहर वा ऐसे स्थान पर चले जाना उचित है जहां के प्राकृतिक दृश्य मन और नयन को सुख देते हों। वहां दौड़ना उछलना गाना आदि बलकारक एवं प्रमोद विस्तारक कर्म भी अवश्य करना चाहिए। इन से तन और मन में पु आती है । फिर वहां से लौट कर श्रम की निवृत्ति के उपरांत भोजन करके नो दस बजे तक सो रहना चाहिए । सोने के कुछ ही पहिले दो चार भूनी हुई हरे लोन के साथ खाना अथवा दुध पोना भो • चूने का ढेला पानी में डाल दो। जब चूना गल जाय और पानी में उसका रंग तनिक भी न रहे वही चूने का पानी कहलाता है । . .