पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५३

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फूटी सह आजी न सहें ] मौलवी तथा पादरियों के मायाजाल में फंस के उनसे चोटी कटा ले, फिर वह चाहे जमा अपने किए पर रोवै, उसका हिंदू होना असम्भव ! 'क्यों भाई शास्त्र की रीति से प्रायश्चित करा मिला न लेव ।' वाह जी! हमारा धर्म जाता रहेगा ।' 'हूँ हूँ, झूठ बोलने में धर्म नहीं जाता, यवनी - गमन में धर्म नहीं जाता, गोरक्त मिश्रित बिलायती शक्कर खाने में धर्म नहीं जाता, एक स्वदेशी भाई को कुमार्ग से स्वधर्म में लाने से धर्म भाग जायगा ? 'प्रेमएवपरोधर्मः' तो उसी दिन रपफूचक्कर हो गया था जिस दिन जयचन्द पृथ्वीराज मे विरोध हुआ था । कहने सुनने को जाति बच रही है । सो भी जानते ही हो कि धर्म ग्रन्थों की तकिया बनाय के देश निद्रा में कुम्भकरण की भांति खरेहटे भर रहा है और उधर वाले कमर बांधे अपनी गाथा बढ़ा रहे हैं। एक दिन होगा कि हिंदू गूलर के फूल हो जायंगे तब बड़ा धर्म रह जायगा । यदि प्रायश्चित की प्रथा निकल जाती तो विमियों के कुछ दांत खट्टे हो जाते । पर कौन किससे कहे, यहां तो 'फूटी सह आंजी न सहैं।' ___ लाला खूसटदास ने जो कुछ गरीबों की नरी काट २ के लया पुंजिया जोरी थी, लड़के के ब्याह मे डाढ़ीवाले मातिशबाजों और रंडिका देवियों के चरणारविंदों में समर्पण कर दिया । 'भई वाह, क्या बरात निकली ! क्यों जी ऐसे रुपयेवाले तो न जान पड़ते थे ?' 'अरे यार इन हौसलों को तो देखो कि अगले ने घर फंक तमाशा देखा है । पर सब गिरी रख दिया, और ऊपर से कर्ज काढा है । फिर जानते ही हो 'नामी मरे नाम को' । 'छिः' ऐसी फजूलखर्जी क्या बुद्धिमानी का काम है ?' वाह, ऐसा न करें तो चार भाइयों में क्या मुंह दिखावें । बुजुरगों की नाक न कट जाय !' हां हां, तीन दिन की धूम के लिये लाख का घर लीख न करेंगे तो पुरखों की नाक कट जायगी, पर जब लहनदार दुवारे पर पिटवावैगे, खलक खुदा का मुलक बास्सा का तब पुरखों की नाक ऐसी बढ़गी कि सरग छू लेगी! जो एक सभा करके शक्त्यानुसार खर्च करने की रीति निकल जाय तो काम का काम निभ जाय और पीछे की खटपट न रहे । पर हां 'फूटी सह आंजी न सह' की कहावत कैसे ठीक उतरे ? दो हमने बताये अब कुछ तुम भी ढूंढ़ लाओ। खं० १, सं० १२ (१५ फरवरी सन् १९८४ ई.)