पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/७३

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कलिकोष ब्राह्मण-बांभन', बा इति भनति स बांभनः अर्थात् बैल-'विद्याविहीनः पशुः" । गुरू-बेशर्मोहया नंगा लुच्चा दीवाना इत्यादि, काशीकोष प्रमाण्यात् । प्रोहत-प्रकर्षणहतः। तथा उपरहित ( उप =समीप ) "समीपे" रहितः अर्थात करीब-करीब सत्यानाशी।। पंडित-पा से पापी, डा से डा डांक, ता से तस्कर । ब्रह्मतेज-क्रोध। ब्राह्मणत्व- "बह्मनई"---सारे तोरे ऊपर कुवांमां गिर परिवे । ब्रह्मज्ञान-नहीं डरने के पाप पाखंड को हम् । भजै किस्को हैं शुद्ध ईश्वर हितोहम् । कहैं हम् को इक बात कोई तो दो हम् । चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिदोऽहं । छत्री-जो बिना छतरी लगाए पयश्राव करने भी न जाय अर्थात् नजाकत का पुतला। राजा-"बाह रजा बाह मरे जाते हैं" बस समझ जाओ। बीर-"एरी मेरी बीर जो लैं आवै बलबीर" इत्यादि प्रसिद्ध हैं। शूर-जलशूर ब्राह्मण इत्यादि छोड़ के समझ जावो । चाहे शूर "हियो कपारे का आंघर" मान लो। ठाकुर-रासधारियों में कृष्ण बनने वाला लौंडा, वा अंगरेज शासन रूपी डिबिया थाले। वश्य–वेश्या का पुलिंग जान पड़ता है क्योंकि "धन के हेतु त्यागि निज गौरव दास बन्यो जन-जन को।" परन्तु मत्सर इतनी है कि "पर मन पर धन हरन को गनिका बड़ी प्रबीन" प्रसिद्ध है, और यह अंगरेजों के लिये कमाते हैं। बनियां-जो कोऊ बनिक आवै अर्थात् कभी झूठमूठ के भक्त, कभी व्यवहार का सच्चा, कभी जगत मित्र इत्यादि । केवल बन आवै, वास्तव में वही "हाथ सुमिरनी बगल कतरनी।' लखपति-जिसने उम्र भर में लाख पति किए हों अर्थात् देखने में मदं पर बज.." महाजन-महा बड़ा और जन फारसी शब्द है अथवा भोले-भाले पारियों तथा गरीब कर्जदारों के हक में "महाजिन" (जिन फारसी में प्रेत को कहते हैं ) ।