पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/७९

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मुच्छ ] ५७ है। मकुना आदमी का चूतड़ ऐसा मुंह किस काम का ? बहुतेरे वैष्णव महाशय सदा मुच्छ मुडाए रहते हैं और कह देते हैं कि मुच्छ में छू जाने से पानी मदिरा समान हो जाता है। यह बात सच होती तो हमारे नव शिक्षितों का बहुत सा रुपया होटल जाने से बचना । हम तो जानते हैं कोई भी उक्त बैष्णवो को समझ का होता तो यह तरह तरह की निम्बूनरास मुच्छ, वृन्दावनो मुच्छ, गलमुच्छ, लाल लाल कालो काली भूरी भूरो उजली मुच्छे काहे को देखने में आती। यद्यपि सबके आगे मुच्छ ऐंठना अच्छा नहीं, परमेश्वर न करे किसी को मुच्छे नवानी पड़ें। परंतु बनवाए रहना, सदा दगहा (मुरदा फूंकने वाला) की सी सूरत रखना भी अशोभित होता है। मुच्छ का बाल मुच्छ हो का बाल है। यह अनमोल है। आगे लाखों करोड़ों रु० में मुच्छ गिरों रक्खी जाती थी । मुच्छ नहीं निकलती तब तक पुरु का नाम पुरुष नहीं होता-"नेक अबै मस भीजन देहु दिना दस के अलबेले लला हो"। सहृदयता का चिह्न, समझदार (बुलूगत) की निशानी भी यही है "ह्याँ इनके रस भीजत से हग हां उनके मस भीजत आवें ।" इज्जत भी इन्हीं से है। मदों की सब जगह मुच्छ खड़ी रहती है सबको इसका ख्याल भी होता है। किसो की दाढ़ी में हाथ डाला प्रसन्न हो गया; जो कही मुच्छ का नाम लिया, देखो कैसा मियान से बाहर होता है। जिसकी इनको इज्जत पर गरत न हुई वुह निन्दनीय है। "काहे मुछई न मानोगे ?"- सुन के कोई ऐसा ही नपुंसक होगा जो लड़ने न लगे। मुच्छे लगा के नीच ऊंच काम करते विडंबना का डर होता है ! शेख जी खेलते हैं लड़कों में, यह तो बंदर है, वुह मुछंदर है । लोगों ने सुंदर व्यक्ति की भौंह को धनुष से उपमा दी है। हमारी समझ में मुच्छ को भी धनुष का खड़ा कहना चाहिए । पुरानो लकीर पर फकीर बुड्ढी मुच्छों वाले ( पुराने खूसट) यद्यपि कुछ नहीं हैं, आज मरे कल दूसरा दिन, परंतु उनके डर के मारे न हमारे इलाइटेंड जेंटिलमेन खुल खेलने पावै, न देहितैर्श गण समाज संशोधन कर सके। उनकी मर्जी पर न चल के किरिष्टान कौन बने । मुच्छ से पारलौकिक संबंध भी है । कोई बड़ा बूढ़ा मर जाता है तो उसकी ऊद्धं दैहिक क्रिया बनवानी पड़ती है। कौन जाने इसी मूल पर कुशा को बिराटलोम लिखा गया हो। पितृकार्य में कुशा भी काटनी पड़ती है। तैसी ही सर्वोत्तम लोम भी छेदन करना पड़ता है। कदाचित् यही "जहाँ ब्राह्मण वहाँ नाऊ' वाली कहावत का भी मूल हो। उनकी जीविका कुशा, इनकी जीविका केश । परमेश्वर, हमारे प्यारे बालकों को मुच्छे मुड़ाने का दिन कभी न दिखाइयो । प्रयागराज में जाके मुच्छे बनवाना भी धर्म का एक अंग समझा जाता है। परंतु हमारे प्रेम शास्त्र के अनुकूल उससे भी कोदि गुणा पुण्य नाटयशाला में स्त्री भेष धारणार्थ मुच्छ मुंडाने से होता है। स्त्रियों के मुच्छ का होना अपलक्षण भी है। हिजड़ों को मुच्छ का जगना अखरता भी है। हमारे कागभुशंड बालोपासक लंपटदास बाबा के अनुयाइयों की राल टपकती है जब किसी अजातस्मश्रु सचिक्कण मुख का दर्शन होता है। वाह री मुच्छ ! तेरी भी अकथ कथा है। न भला कहते बनै न बुरा कहते बनै । तुझ पर भी किसी को बैंगन बापले किसी को बैंगन पथ्य' की कहावत सार्थक