पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१०२

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दो ।

दकार की दुरूहता हमारे पाठकों को भली भांति विदित है और यह शब्द उसी में और एक तुरो लगा के बनाया है। इससे हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह भी दुःख दुर्गणादि का दरिया ही है, क्योंकि सभी जानते हैं कि-'नहि बिष बेलि अमिय फल फरहीं। पर इतना समझ लेने ही से कुछ न होगा। बुद्धिमान को चाहिए कि जिन बातों को बुरा समझे उन्हें यत्नपूर्वक छोड़ दे। किन्तु यतः संसार की रीति है कि जब कोई जानी बूझी बात को भी चित्त से उतार देता है तौ उसके हितैषियों को उचित होता है कि सावधान कर दें। इसी में हम अपना धर्म समझते हैं कि अपने यजमानों को यह दुर्गतिदायक शब्द स्मरण करा दें, क्योंकि ब्राह्मण के उपदेश केवल हँस डालने के लिये नहीं हैं बरंच गांठ बांधने से अपना एवं अपने लोगों का हित साधने में सहारा देने के लिये है।

हम क्यों न कहैं कि-दो-पर ध्यान दो और उसे छोड़ दो। इस वाक्य से कहीं यह न समझ लेना कि बर्ष समाप्त होने में केवल तीन मास रह गये हैं, इससे दक्षिणा के लिये बारबार दो दो (देव देव) करते हैं। हां, इस विषय पर भी ध्यान दो और हमें ऋण हत्या से शीघ्र छुड़ा दो तो तुम्हारी भलमंसी है। पर हम यद्यपि अपना मांगते हैं, अपने पत्र का मूल्य मांगते