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पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/११७

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रात तक निर्जल रहने की याद दिला देंगे तब यक़ीन है, कि वे भी सब आमोद-प्रमोद भूल जायंगे। क्योंकि 'भूखे भगति न होय गोपाला'। कुआंर का कहना हो क्या है। प्रोहित जी पित्र पक्षों भर सबके पिता-पितामहादि के ऋप्रिज्यंटेटिव (प्रतिनिधि) बने हुए नित्य शष्कुली खाते और गुलछरें उड़ाते हैं। फिर दुर्गा पूजा में बंगाली माशा पेट भर भर माँस खाते और तोंद फुलाते हैं । कातिक में यों तो सबी को सुख मिलता है, पर हमारे.... अन्टीबाजों की पौ बारह रहती हैं 'न हाकिम का खटका न रैयत का ग़म' । सरे बाजार मतलब गांठना, विशेषतः दिवाली में तो देश का देश ही उनकी 'स्वार्थसाधिनी' सभा का म्यंबर हो जाता है। पीछे से 'आक़वत की खबर खुदा जाने ।' आज तो राजा, बाबू, नवाब, सर (अंगरेज़ी प्रतिष्ठावाचक) हज़रत, श्रीमान सब आप ही तो हैं । अगहन और पूस हिन्दुओं के लिये ( हक़ में) मनहूस महीने हैं। इनमें शायद कोई त्योहार होता हो। पर बड़ा दिन बहुधा इन्हीं में होता है। इससे मेवा फरोशों तथा हमारे गौरांग देवताओं का मुंह मीठा होता है। माघ में स्नानादि अखरते हैं । इससे धर्म-कार्य ही कम होते हैं । परबे कहां से हों। हां बसन्त पंचमी के दिन धोबियों की महिमा बढ़ जाती है। घर घर श्री पार्वती देवी की स्थानाधिकारिणी बनी पुजाती फिरती हैं ( हम नहीं जानते यह चाल कब से चली है और कौन उत्तमता सोच के चलाई गई है। ) फागुन के तो क्या क्या गुन गाइये। होली है !!! ऐसा कौन है जो खुशी के मारे