पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१६१

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से नकर सके। अब हम कैसे क्या करेंगे ? यदि यह भयानक लहरें जी में उठी तो जन्म भर कर्म-कांड और उपासना-कांड के झगड़ों से छुट्टी नहीं। और जो न उठी तो मानो आत्मा निरी निर्जीव है। भूख का बिलकुल न लगना शरीर के लिये अनिष्ट है। तो अपने कल्याणों की प्रगाढ़ेच्छा न होना आत्मा के लिये क्योंकर श्रेयस्कर कहें।

किसी महात्मा का वचन है कि 'वे लोग धन्य हैं जो धर्म के लिये भूखे और प्यासे हैं, क्यों कि वे तृप्त किए जायंगे' । सो तृप्त होना शुष्क ज्ञानरूपी स्वर्ण दंड से कदापि संभव नहीं, क्यों कि सोना स्वयं खाद्य वस्तु नहीं है। ऐसे ही ज्ञान भी केवल सुखद मार्ग का प्रदर्शक मात्र है, कुछ सुख स्वरूप नहीं है । बरंच बहुधा दुःखदायक हो जाता है। पर, हां, ईश्वर के अमित अनु- ग्रह से स्वयं रसमय निश्चित अलौकिक और अकृत्तिम प्रेम भी हमारे हृदय क्षेत्र में रक्खा गया है जिसके किंचित सम्बन्ध से हम तृप्त हो जाते हैं। आंतरिक दाह का नाश हो जाता है। ईश्वर तो ईश्वर ही है। किसी सांसारिक वस्तु का क्षणस्थाई और कृत्तिम प्रेम कैसा आनन्दमय है कि उसके लिये कोटि दुःख भी हो जाते हैं। और प्रेम-पात्र की प्राप्ति तो दूर रही, उसके ध्यान मात्र से हम अपने को भूल के आनन्दमय हो जाते हैं। जैसे यावत मिष्ठान्न का जनक इक्षु दंड है, वैसे ही जितने आनन्द हैं सब का उत्पादक प्रेम है। तत्क्षण शांति और पुष्टि दाता यह इस समय प्रेम ही है जिसकी केवल एक देशी