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पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१६०

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पहरा-चौकी, जागना-जूगना कुछ भी न चाहिये। पर कोई ताकने की आवश्यकता ही क्या है ? जहां तक बिचारिए यही पाइएगा कि जितनी स्वर्ण दंड के सम्बन्ध में आपत्तियां हैं उससे कहीं चढ़ी बढ़ी इक्षु दंड के साथ निर्द्वन्दता है। विशेषतः क्षुधा क्लान्त के लिये वह तत्क्षण शांतिदाता ही नहीं वरंच पुष्टिकारक सुस्वादुप्रद भी है।

पाठक महोदय ! जैसे इस दृश्यमान संसार में स्वर्ण-दंड और इक्षुदंड की दशा देखते हो ऐसे ही हमारी आत्मसृष्टि में ज्ञान और प्रेम है। दुनियां में जाहिरी चमक दमक ज्ञान की बड़ी है । शास्त्रार्थों की कसौटी पर उसके खूब जौहर खिलते हैं। संसारगामिनी बुद्धि ने उसके बनाने में बड़ी कारीगरी दिखलाई है। पांडित्याभिमान और महात्मापन की शान उससे बड़ी शोभा पाती है। इससे हद है कि एक अपावन शरीरधारी, सर्वथा असमर्थ अन्न का कीड़ा रोग शोकादि का लतमर्द मनुष्य उसके कारणं अपने को साक्षात ब्रह्म समझने लगता है। इससे अधिक ऊपरी महत्व और क्या चाहिए ? पर जिन धन्य जनों की आत्मा धर्म-स्वादु की क्षुधा से लालायित होरही हैं, जिनके हृदय-नेत्र हरि-दर्शन के प्यासे हैं उनकी क्या इतने से तृप्ति हो जायगी कि शास्त्रों में ईश्वर ने ऐसा लिखा है, जीव का यह कर्तव्य है, इस कर्म का यह फल है, इत्यादि से आत्मा शांति हो जायगी ? हमतो जानते हैं शांति के बदले यह विचार और उलटी घबरा- हट पैदा करेगा कि हाय हमें यह कर्तव्य था, पर इन इन कारणों