पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१६३

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धर्म में पंचसंस्कार, तीर्थों में पंचगंगा और पंचकोसी, मुसलमानों में पंच पतिव्रत आत्मा (पाक पेजतन) इत्यादि का गौरव देखके विश्वास होता है कि पंच शब्द से परमेश्वर बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है। इसी मूल पर हमारे नीति-विदाम्बर पूर्वजों ने उपर्युक्त कहावत प्रसिद्ध की है। जिसमें सर्वसाधारण संसारी-व्यवहारी लोग (यदि परमेश्वर को मानते हों तो) पंच अर्थात् अनेक जनसमुदाय को परमेश्वर का प्रतिनिधि समझे। क्योंकि परमेश्वर निराकार निर्विकार होने के कारण न किसी को वाह्य चक्षु के द्वारा दिखाई देता है, न कभी किसी ने उसे कोई काम करते देखा; पर यह अनेक बुद्धिमानों का सिद्धान्त है कि जिस बात को पंच कहते वा करते हैं वह अनेकांश में यथार्थ ही होती है । इसी सेः-

“पांच पंच मिल कीजै काज, हारे जीते होय न लाज," तथा-

“बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो,
ज़बाने खल्क को नकारए खुदा समझो।”

इत्यादि वचन पढ़े लिखों के हैं, और–'पांच पंच कै भाषा अमिट होती है', 'पंचन का बैर कै कै को तिष्ठा है' इत्यादि वाक्य साधारण लोगों के मुंह से बात २ पर निकलते रहते हैं। विचार के देखिए तो इसमें कोई सन्देह भी नहीं है कि-

'जब जेहि रघुपति करहिं जस, सो तस तेहि छिन होय' की भांति पंच भी जिसको जैसा ठहरा देते हैं वह वैसा ही