पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१६६

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बहिश्त कहीं से आ जाते होंगे। हमें उनसे क्या । हम सांसारिकों के लिए तो यही सर्वोपरि सुख-साधन का उपाय है कि हमारे पंच यदि सचमुच विनाश की ओर जा रहे हों तो भी उन्हीं का अनुगमन करें। तो देखेंगे कि दुख में भी एक अपूर्व सुख मिलता है । जैसे कि अगले लोग कह गए हैं कि-

"पंचों शामिल मर गया जैसे गया बरात ।"
“मर्गे गएगम्बोह जशनेदारद ।”

जिसके जाति, कुटुम्ब, हेती-व्यवहारी, इष्ट-मित्र, अड़ोसी- पड़ोसी में से एक भी मर जाता है उसके मंह से यह कभी नहीं निकलता कि परमेश्वर ने दया की। क्योंकि जब परमेश्वर ने पंचों में से एक अंश खींच लिया तो दया कैसी। बरंच यह कहना चाहिए कि हमारे जीवन की पूंजी में से एक भाग छीन लिया। पर अनुमान करो कि यदि किसी पुरुष के इष्ट-मित्रों में से कोई न रहे तो उसके जीवन की क्या दशा होगी। क्या उसके लिए जीने से मरना अधिक प्रिय न होगा ? फिर इसमें क्या संदेह है कि पंच और परमेश्वर कहने को दो हैं, पर शक्ति एक ही रखते हैं । जिस पर यह प्रसन्न होंगे वही उसकी प्रसन्नता का प्रत्यक्ष फल लाभ कर सकता है। जो इनकी दृष्टि में तिरस्कृत है वह उसकी दृष्टि में भी दयापात्र नहीं है। अपने ही लों वह कैसा ही अच्छा क्यों न हो। पर इसमें मीन मेख नहीं है कि संसार में उसका होना न होना बराबर होगा। मरने पर भी अकेला वैकुण्ठ में क्या सुख देखेगा। इसी से कहा है-