पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१७८

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से परिचित होते हैं, तो प्राचीनकाल के महर्षियों की बुद्धि पर बलि २ जाते हैं, बरंच बहुतेरे उनकी आज्ञा पर भी चलने लगते हैं, और इसके पुरस्कार में परमात्मा उन्हें सुख-सुयश का भागी प्रत्यक्ष में बना देता है, तथा परोक्ष के लिए अनन्त मङ्गल का निश्चय उनकी आत्मा को आप हो जाता है। यह देखकर भी जिस हिन्दू की आखें न खुलें, और इतना न सूझे कि जिन दिव्य रत्नों को दूर २ के परीक्षक भी गौरव से देखते हैं, उन्हें कांच बतलाना अपनी ही मनोवृष्टि का दोष दिखलाना वा अपने अग्रगन्ता की अतिमानुषी बुद्धि का बैभव जतलाना है, और जो ऐसा साहस करने में स्वतंत्र बनता है उसके लिए विचारशील- मात्र कह सकते हैं कि यह स्वतंत्रता एक प्रकार का मालीखूलिया (उन्माद) है, जिसका लक्षण है-किसी बात वा वस्तु को कुछ का कुछ समझ लेना, वा बिन जानी बात में अपने को ज्ञाता एवं शक्ति से बाहर काम करने में समर्थ मान बैठना।

यह रोग बहुधा मस्तिष्क-शक्ति की हीनता से उत्पन्न होता है, और बहुत काल तक एक ही प्रकार के विचार में मग्न रहने से बद्धमूल हो जाता है। आश्चर्य नहीं कि स्वतंत्र देश के स्वतंत्राचारियों ही की बातें लड़कपन से सुनते २ और अपनी रीति-नीति का कुछ ज्ञान-गौरव न होने पर दूसरों के मुख से उनकी निन्दा सहते २ ऐसा भ्रम हो जाता हो कि हम स्वतंत्र हैं, तथा इस स्वतंत्रता का परिचय देने में और ठौर सुभीता 'न देखकर अनबोल पुस्तकों ही के सिद्धान्तों पर मुंह मारना सहज