पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२१४

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( २०३)

बार पाकि गे रीरौ झुकि गै
मूंडौ सासुर हालन लाग।
हाथ पांव कुछु रहे न आपनि
केहिके आगे दुखु र्वावन॥३॥
यही लकुठिया के बूते अब
जस तस डोलित डालित है।
जेहिका लै कै सब कामेन मा
सदा खखारत फिरत रहन।
जियत रहैं महराज सदा जो
-हम ऐस्यन का पालति हैं।
नाहीं तो अब को धौ पूंछै
केहिके कौने काम के हन॥४॥
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सभा-वर्णन।
दिन के दिन सब कोउ जुरि आये, देखवैया औ कारगुजार॥
कोऊ आये हैं बिरिया पर, कोउ कोउ पहरन समै बिताय॥
लगी कचेहरी नुनि लाला की, भरमाभूत लगे दरबार॥
रंग बिरंगे कपड़ा झलकैं, शोभा तिलक त्रिपुंडन क्यार॥
गरे जंजीरैं हैं सोने की, मानौ बंधुवा कलियुग क्यार॥
बाँह अनन्ता कोउ कोउ पहिरे, टड़ियाँ मनौ मेहरियन क्यार॥