पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२१६

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(२०५)

दुनिया क्या शै है ? क्यों है ? क्या इसका अव्वल ओ आखिर है ?
बाद मौत के कहां जाना है, क्या होना फिर है ?
इन बातों का ठीक हाल नहिं हुआ किसी को जाहिर है ।
झूठी बकबक मचाता हर मोमिन औ क़ाफ़िर है ।।
इन झगड़ों को कहिये तो ? कब, किसने, कहां निबेड़ा है ॥१॥
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निज प्रेममयी मदिरा से मुझे छकाओ ।
अपनी शोभा पर मेरा चित्त लुभाओ।।
सब विषय वासना की तुच्छता दिखाओ ।
मैं मैं मेरा मुझसे छुड़वाओ ।।
अपने प्रताप को सब प्रकार अपनाओ।
मुझको प्रभु अपना सच्चा दास बनाओ ॥२॥
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रसहू अनरस में एक सरिस रस राखै ।
सोइ सरस हृदय बस प्रेम-सुधा-रस चाखै ।।
चितते बिसरावै चिन्ता दुहु लोकन की ।
सब शंक तजै निज जीवन और मरन की।।
समुझे इकही सी प्रीति बैर जगजन की ।
मन भावन मैं सब करै भावना मन की।।
भोरे भावन हू और न कछु अभिलाखै ॥३॥
['मन की लहर' से]
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