पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२१७

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( २०६)

समस्या पूर्ति ।
(पपिहा जब पूंछिहै पीव कहाँ)
बन बैठी है मान की मूरति सी
मुख खोलति बोलै न नाहि न हाँ।
तुमही मनुहारि कै हारि परे
सखियान की कौन चलाई कहाँ।
बरखा है प्रताप जू धीर धरो
अब लों मन को समुझायो जहाँ ।
वह ब्यारि तबै बदलैगी कछू
पपिहा जब पूंछिहै पीव कहाँ ॥१॥
(बीर बली धुरवा घमकावैं)
बूड़ि मरैं न समुद्र में हाय
ये नाहक हाथ निछीछे डुबावैं ।
का तजि लाजि गराज किये
मुख कारो लिये इत ही उतधावैं।
नारि दुखारिन पै बज मारे
वृथा बुंदियान के बान चलावैं ।
बीर हैं तौ बल बीरहि जाय कै
बीर बली धुरवा घमकावैं ॥२॥
(बजनी घुघुरू रजनी उजियारी)
आसव छाकि खुली छति पै