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पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२३३

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( २२२ )
भजन १
साधो मनुवाँ अजब दिवाना ।
माया मोह जनम के ठगिया तिनके रूप भुलाना ।।
छल परपंच करत जग धूनत दुख को सुख करि माना ।
फिकिर तहाँ की तनिक नहीं है अंत समय जहँ जाना ॥
मुखते धरम धरम गौहरावत करमं करत मनमाना ।
जो साहब घट घट की जानै तेहि तैं करत बहाना ।।
तेहि ते पूछत मारग घर को आपहि जौन भुलाना ।
'हियाँ कहाँ सज्जन कर वासा' हाय न इतनौ जाना॥
यहि मनुवाँ के पीछे चलि के सुख का कहाँ ठिकाना ।
जो "परताप" सुखद को चीन्हे सोई परम सयाना ।।
भजन २
जागो भाई जागो रात अब थोरी।
काल चोर नहिं करन चहत है जीवन धन को चोरी ॥
औसर चूके फिर पछितैहो हाथ मीजि सिर फोरी ।
काम करो नहिं काम न ऐहैं बातें कोरी कोरी ।।
जो कुछ बीती बीत चुकी सो चिंता ते मुख मोरी ।
आगे जामे बनै सो कीजै करि तन मन इक ठौरी ॥
कोऊ काहू को नहिं साथी मात पिता सुत गोरी ।
अपने करम आपने संगी और भावना भोरी ।।
सत्य सहायक स्वामि सुखद से लेहु प्रीति जिय जोरी ।
नाहिं तु फिर "परताप हरी" कोउ बात न पूछहि तोरी ॥
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