इस मस्ती अथवा तल्लीनता पर अटल रहते हैं और सांसारिक विषयों की ओर उनकी समदृष्टि रहती है। इस श्रेणी में बड़े मसखरे लोग, कविगण तथा अन्य कलाकोविद सम्मिलित
होने चाहिए।
इसी मानसिक स्थिरता अथवा औदार्य को प्रतापनारायण जी अपने भावपूर्ण शब्दों में यों प्रकट करते हैं:-
“जहाँ तक सहृदयता से विचार कीजिएगा, वहाँ तक यही सिद्ध होगा कि प्रेम के विना वेद झगड़े की जड़, धर्म बे सिर-पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल, मुक्ति प्रेत की बहिन है। ईश्वर का तो पता लगाना ही कठिन है••••••।"
हद हो गई रिंदी की ? दुनिया के किसी तज़ुर्बें को और धर्म के किसी तत्त्व को तौलने की कितनी अच्छी कसौटी है !
“एकै आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय' वाली बात है।
इसी मस्ती की तरंग में आकर मिश्र जी ने 'मदिरा' की बहुत कुछ तारीफ़ कर डाली है। कुछ लोगों को केवल इसी सूफ़ियाना ढंग से की गई प्रशंसा के कारण यह भ्रांति हो गई है कि प्रतापनारायण जी मदिरा-सेवक थे। यह धारणा ऐसी ही निर्मूल है जैसी कि चोरी का दृश्य वर्णन करने वाले किसी कहानी-लेखक अथवा नाटककार को चोर सम- झने की।