वार्षिक चंदा न देनेवाले ग्राहकों के नाम ब्रह्मघातकों की श्रेणी
में लिखे जाते थे और उन्हें शर्मिंदा करने की कोशिश की
जाती थी। कभी 'आठ मास बीते जजमान, अबतो करौ दक्षिणा-
दान' की हास्यपूर्ण अपील करके उनसे चंदा वसूल करने का ढंगा
अख्तियार किया जाता था।
अंत में, मिश्र जी इस प्रकार के मुफ़्तखोर कच्चे हिंदी- प्रेमियों से परेशान हो गये और अपनी गाँठ से खर्च करते करते हार गये। यह नौबत आगई कि शीघ्र ही 'ब्राह्मण' बंद करना पड़ा।
इसके पहले कि 'ब्राह्मण' के साहित्यिक महत्त्व पर विचार किया जाय ज़रा उसके उद्देश्य को प्रतापनारायण जी के ही शब्दों में देखिए। सब से पहले अंक में उन्होंने 'प्रस्तावना" शीर्षक छोटे से लेख में यह लिखा था:-
"••••••कानपुर इतना बड़ा नगर सहस्रावधि मनुष्य की बस्ती (?)। पर नागरी पत्र जो हिंदी-रसिकों को एक मात्र मन बहलाव देशोन्नति का सर्वोत्तम उपाय शिक्षक और सभ्यता-- दर्शक (हो ? ) यहाँ एक भी नहीं। ••••••" सदा अपने यजमानों (ग्राहकों) का कल्याण करना ही हमारा मुख्य कर्म होगा।
••••••हमको निरा ब्राह्मण ही न समझियेगा। जिस
तरह सब जहान में कुछ हैं हम भी अपने गुमान में हैं कुछ।
हमारी दक्षिणा भी बहुत न्यून है।•••••• हाँ, एक बात रही
जाती है। जन्म हमारा फागुन में हुआ है और होली की पैदा-