( ३२ )
अच्छा ज्ञान हो जाता है, और उसमें उनके विषय की जानकारी प्राप्त करने की उत्सुकता पैदा हो जाती है।
सुबोधता उनकी शैली में इस कारण है कि वे प्रायः बोल-चाल की भाषा लिखते हैं जिसमें मौके पर मुहावरों का प्रयोग होता है या प्रसंग के अनुसार चुभते हुए उद्धरण होते हैं। भाव-पूर्णता अथवा सजीवता लाने में भी यही युक्ति काम देती है। एक उदाहरण लीजिए:---
“यह कलजुग है। बड़े बड़े बाजपेयी मदिरा पीते हैं। पीछे से बल, बुद्धि, धर्म, धन, मान, प्रान सब स्वाहा हो जाय तो बला से! पर थोड़ी देर उसकी तरंग में 'हाथी मच्छर, सूरज जुगनू' दिखाई देता हैॱॱॱॱॱॱ।"
वाचकों के साथ पारस्परिक मैत्रीभाव स्थापित करने में प्रतापनारायण जी की सहृदयता, स्पष्टवादिता तथा दिल्लगीबाजी सहायक होती हैं। इन्हीं की प्रचुरता के कारण उनके लेखों को पढ़ते समय हमारे दिल को बड़ा मजा मिलता है और उनके लिए वही भाव उत्पन्न होते हैं जो किसी मनोरंजक वार्तालाप करने वाले पुरुष के प्रति होते हैं।
उनकी शैली में एक और उत्तमता है। उनकी सूझ तो अद्वितीय है ही। पर, साथ ही साथ वाचकों को चकित करने की शक्ति भी उनमें है। अर्थात् , कभी कभी किसी विषय पर निबंध लिखते हुए वे अपने विचारों को ऐसा विचित्र घुमाव-फिराव दे देते हैं कि पढ़नेवाले का मन खिल सा उठता है।