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साहित्य के इतिहास में ऊँचा रहेगा।
पंडित जी ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली दोनों में कविता करते थे। परंतु उनका यह मत था कि "जो लालित्य, जो माधुर्य, जो लावण्य कवियों की उस स्वतंत्र भाषा में है जो ब्रजभाषा बुंदेलखंडी, बैसवारी और अपने ढंग पर लाई गई संस्कृत व फारसी से बन गई है, जिसे चंद से ले के हरिश्चंद्र तक प्रायः सब कवियों ने आदर किया है उसका सा अमृतमय चित्त- चालक रस खड़ी और बैठी बोलियों में ला सके यह किसी कवि के बाप की मज़ाल नहीं।"
उनकी उत्तमोत्तम कवितायें लगभग सब ब्रजभाषा में ही हैं। जब कभी व्यंग करना होता था अथवा हँसोड़पन सूझता था तो वे उर्दू की शेरें लिखा करते थे और जिस उर्दू को वे 'सब भाषाओं का करकट' कहा करते थे उसी का व्यवहार करते थे। कविता के लिए वे उसे बुरा नहीं समझते थे और एक जगह कहते हैं किः- "कविता के लिए उर्दू बुरी नहीं है। कवित्व-रसिकों को वह भी वार-ललना के हाव-भाव का मज़ा देती है।"
उनकी खड़ी बोली की कविताएँ अधिकतर सामयिक अथवा शिक्षाप्रद विषयों पर होती थीं। मिश्र जी की कवित्व-