पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/६१

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समझे ? वाह रे आप!


युवावस्था ।

जैसे धरती के भागों में वाटिका सुहावनी होती है, ठीक वैसे ही मनुष्य की अवस्थाओं में यह समय होता है। यदि परमेश्वर की कृपा से धन-बल और विद्या में त्रुटि न हुई तौ तो स्वर्ग ही है, और जो किसी बात की कसर भी हुई तो आवश्य- कता की प्रावल्यता यथासाध्य सब उत्पन्न कर लेती है। कर्तव्या- कर्तव्य का कुछ भी विचार न रखके आवश्यकता-देवी जैसे तैसे थोड़ा बहुत सभी कुछ प्रस्तुत कर देती हैं। यावत् पदार्थों का ज्ञान, रुचि और स्वादु इसी में मिलता है। हम अपने जीवन को स्वार्थी, परोपकारी, भला, बुरा, तुच्छ, महान् जैसा चाहें वैसा इसी में बना सकते हैं। लड़काईं में मानो इसी अवसर के लिए हम तय्यार होते थे, बुढ़ापे में इसी काल की बचत से जीवन-यात्रा होगी। इसी समय के काम हमारे मरने के पीछे नेकनामी और वदनामी का कारण होंगे।

पूर्व-पुरुषों के पदानुसार बाल्यावस्था में भी यद्यपि हम पंडितजी, लालाजी, मुन्शीजी, ठाकुर साहब इत्यादि कहाते हैं, पर वह ख्याति हमें फुसलाने मात्र को है। बुढ़ापे में भी बुढ़ऊ बाबा के सिवा हमारे सब नाम सांप निकल जाने पर लकीर पीटना है। हम जो कुछ हैं, हमारी जो निजता है, हमारी निज