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पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/६९

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पिता, राजा, गुरू, पति, अन्नदाता कहते रहेंगे तो इसमें कुछ मीन-मेष नहीं है कि आप हमें अपनावेंगे और हमारे दुःख दरिद्र मिटावेंगे।

अजी साहब, आप तो आप ही हैं, हम दीनानाथ, दीनबन्धु, पतित-पावन कह कह के ईश्वर तक को फुसला लेने का दावा रखते हैं। दूसरे किस खेत की मूली हैं, खुशामद वह चीज़ है कि पत्थर को मोम बनाती है, बैल को दुह के दूध निकालती है। विशेषतः दुनियादार स्वार्थपरायण उदरंभर लोगों के लिये तो इससे बढ़ के कोई रसायन ही नहीं है। जिसे यह चतुराक्षरी मंत्र न आया उसकी चतुरता पर छार है, विद्या पर धिक्कार है और गुणों पर फटकार है। यदि कैसा ही सज्जन, सुशील, सहृदय, निर्दोष, न्यायशील, नम्रस्वभाव, उदार, सद-गुणागार, साक्षात सतयुग का औतार क्यों न हो, पर खुशामद न जानता हो तो इस जमाने में तो उसकी मट्टी ख्वार है। मरने के पीछे चाहे भले ही ध्रुव जी के मुकुट का मणि बनाया जाय। और जो खुशामद से रीझता न हो उसे भी हम मनुष्य तो नहीं कह सकते पत्थर का दुकड़ा, सूखे काठ का कुंदा या परमयोगी महाबैरागी कहेंगे। एक कवि का वाक्य है, कि 'बार पचै माछी पचै पाथर हू पचि जाय, जाहि खुशामद पचि गई ताते कछु न बसाय'।

सच है खुशामदी लोगों की बातें और घातें ही ऐसी होती हैं कि बड़े बड़ों को लुभा लेती हैं। सब जानते हैं कि यह