पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/७०

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खुशामद।

यद्यपि यह शब्द फ़ारसी का है, पर हमारी भाषा में इतना घुल-मिल गया है कि इसके ठीक भाव का बोधक, कोई हिन्दी का शब्द ढूंढ़ लावें तो हम उसे बड़ा मर्द गिनें ।'मिथ्या प्रशंसा', 'ठकुर सुहाती' इत्यादि शब्द गढ़े हुए हैं । इनमें वह बात ही नहीं पाई जाती जो इस मज़ेदार मोहनीमंत्र में है। कारण इसका यह जान पड़ता है कि हमारे पुराने लोग सीधे, सच्चे, निष्कपट होते रहे हैं। उन्हें इसका काम ही बहुत कम पड़ा था। फिर ऐसे शब्द के व्यवहार का प्रयोजन क्या ? जब से गुलाब का फूल, उर्दू की शीरी ज़बान इत्यादि का प्रचार हुआ तभी से इस करामाती लटके का भी जौहर खुला। आहाहा !! क्या कहना है। हुजूर खुश हो जायं और बंदे की आमद हो । यारों के गुलछरें उड़ें । फिर इसके बराबर सिद्ध और काहे में है। आप चाहे कैसे कड़े मिजाज़ हों, रुक्खण हों, मक्खीचूस हों जहां हम चार दिन कुक झुक के सलाम करेंगे दौड़-दौड़ आपके पास आवेंगे आपकी हां में हां मिलावेंगे, आपको इंद्र, वरुण, हातिम, करण, सूर्य, चंद्र-लैली, शीरी इत्यादि बनावेंगे आप को जमीन पर से उठा के झंडे पर चढ़ावेंगे, फिर बतलाइए तो आप कब तक राह पर न आवेंगे ? हम चाहे जैसे निर्बुद्धि, निकम्मे, अविद्वान् ,अकुलीन क्यों न हों, पर यदि हम लोक- लज्जा, परलोक-भय,सब को तिलांजली देके आप ही को अपना