सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(८४ )


लते समय उस वस्तु को दोनों हाथों अपनी ओर खींच लावेगा। प्रत्यक्ष देख लो कि यह जिसका स्वत्व हरण किया चाहते हैं उसे पहले कुछ भी नहीं ज्ञान होता, पीछे से जो है सो इन्हीं का ! और हमारे वर्णमाला का "ट' एक ऐसे आंकड़े के समान है, जिसे ऊपर से पकड़ सकते हैं, और हर पदार्थ में प्रविष्ट कर सकते हैं। पर उस वस्तु को यदि सावधानी से अपनी ओर खींचें तौ तो कुशल है नहीं तो कोरी मिहनत होती है ! इसी से हम जिन बातों को अपनी ओर खींचना आरम्भ करते हैं उनमें 'टकार' के नीकेवाली नोक की भांति पहिले तो हमारी गति खूब होती है, पर पीछे से जहां हड़ता में चूके वहीं संठ के संठ रह जाते हैं।

दूसरा अन्तर यह है कि अगरेजों के यहां "टी” सार्थक है और हमारे यहां एक रूप से निरर्थक । अंगरेज़ी में "टी" के माने चाह के हैं, जो उनके पीने की चीज़ है, अर्थात् वे अपना पेट भरना ख़ब जानते हैं । पर हमारे यहां "ट" का कुछ अर्थ नहीं है। यदि टट्टा कहो तो भी एक हानिकारक ही अर्थ निकलता है, घर में टट्टा लगा हो तो न हम बाहर जा सकते हैं, अर्थात् अन्य देश में जाते ही धर्म और विरादरी में बदनाम होते हैं, और बाहर की विद्या, गुण आदि हमारे हृदय-मंदिर के भीतर नहीं आ सकते। आवै भी तो हमारे भाई चोर २ कहके चिल्लाय !


नीचे से पकड़ना अर्थात् उसके मूल को ढूंढ़ के काम में लाना और ऊपर से पकड़ना अर्थात् दैवाधीन समझ कर कर उठाना ।