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पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/९७

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यह अनर्थ ही तो है।

तीसरा फ़र्क लीजिए, जितना उनके यहां "ट' का खर्च है उतना हमारे यहां है नहीं। तिस पर भी हम अपने यहां के "ट" का बर्ताव बहुत अच्छी रीति से नहीं करते । फिर कहां से पूरा पड़े। 'टकार' का अक्षर नीतिमय है, उस नीतिमय अक्षर को बुरी रीति से काम में लाना बुरा ही फल देता है। हम ब्राह्मण हैं तो टीका (तिलक) और चोटी सुधारने में घंटों बिता देते हैं, यह काम स्त्रियों के लिए उपयोगी था, हमें चाहिए था, वास्त- विक धर्म पर अधिक जोर देते । यदि हम क्षत्री हैं तो टंटा- बखेड़ा में पड़े रहते हैं ! यह काम चाहिए था शत्रुओं के साथ करना, नकि आपस में। यदि हम वैश्य हैं तो केवल अपना ही टोटा (घटी) या नफा विचारेंगे, इससे सौदागरी का सच्चा फल नहीं मिलता। यदि हम अमीर हैं तो सैकड़ों रुपया केवल अपना दिमाक बनाने में लगा देंगे, टेसू बने बैठे रहेंगे, इससे तो यह रुपया किसी देश-हितकारी काम में लगाते तो अच्छा था। पढ़े लिखे हैं तो मतवाद में टिलटिलाया करेंगे, कोई काम करेंगे तो अंटसंट रीति से, सरतारे होंगे तो टालमटोला किया करेंगे।

इस ऊटपटांग कहानी को कहां तक कहिए, बुद्धिमान विचार सकते हैं कि जब तक हमारी यह टेंव न सुधरेगी, जब तक हमारे देश में ऐसी ही टिचर्र फैली रहेगी तब तक हमारे दुःख-दरिद्र भी न टलेंगे। दुर्दशा योंही टेंटुआ दबाए