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प्रतिज्ञा

दाननाथ ने चौंककर कहा---अमृतराय हैं। यह आज कहाँ से फट पड़े? ज़रा पान-वान भिजवा देना।

विवाह के बाद आज अमृतराय पहली बार दाननाथ के घर आये थे। प्रेमा तो ऐसी घबरा गई, मानों द्वार पर बारात आ गई हो। मुँह से आवाज़ ही न निकलती थी। भय होता था, कहीं अमृतराय उसकी आवाज़ न सुन लें। इशारे से महरी को बुलाया और पानदान मँगवाकर पान बनाने लगी।

उधर दाननाथ बाहर निकले तो अमृतराय के सामने आँखें न उठती थीं। मुस्करा तो रहे थे, पर केवल अपनी झेंप मिटाने के लिए।

अमृतराय ने उन्हें गले लगाते हुए कहा--आज तो यार तुमने कमाल कर दिखाया। मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी ऐसी स्पीच न सुनी थी।

दाननाथ पछताए कि यह बात प्रेमा ने न सुनी। शर्माते हुए बोले---अजी दिल्लगी थी। मैंने कहा, यह तमाशा भी कर देखूँ।

अमृत॰---दिल्लगी नहीं थी भाई, जादू था। तुमने तो आग लगा दी। अब भला हम जैसों की कौन सुनेगा। मगर सच बताना यार, तुम्हें यह विभूति कैसे हाथ आ गई। मैं तो दाँत पीस रहा था। मौका होता तो वहीं तुम्हारी मरम्मत करता।

दान॰---तुम कहाँ बैठे थे? मैंने नहीं देखा।

अमृत॰---सबसे पीछे की सफ़ में मुँह छिपाए खड़ा था। आओ, जरा तुम्हारी पीठ ठोक दूँ।

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