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प्रतिज्ञा

तो कौन मरी जाती है। औरतों का बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं होता!

दाननाथ ने दो-चार बार मना किया; मगर कमला ने न छोड़ा। दोनो ने मैनेजर के घर भोजन किया; और सिनेमा हाल में जा बैठे मगर दाननाथ को ज़रा भी आनन्द न आता था। उनका दिल घर की ओर लगा था। प्रेमा बैठी होंगी---अपने दिल में क्या कहती होंगी? घबरा रही होंगी। बुरा फँसा। कमला बीच-बीच में कहता जाता था---यह देखौ चैपलिन आया---वाह-वाह! क्या कहना है पट्ठे, तेरे दम का जमूड़ा है---अरे यार किधर देख रहे हो, ज़रा इस औरत को देखो, सच कहता हूँ, यह मुझे पानी भरने को नौकर रख ले, तो रह जाऊँ---वाह! ऐसी-ऐसी परियाँ भी दुनिया में हैं! एक हमारा देश खूसट है, तुम तो सो रहे हो जी!

बड़ी मुश्किल से अवकाश आया। कमला तो पान और सिगरेट लेने चले, दाननाथ ने दूसरे दरवाजे से निकलकर घर की राह ली।

प्रेमा ने कहा---बड़ी जल्दी लौटे; अभी ग्यारह ही तो बजे हैं!

दान॰---क्या कहूँ प्रिये, तुम्हारे भाई साहब पकड़ ले गये।

प्रेमा ने तिनककर कहा---झूठ मत बोलो, भाई साहब पकड़ ले गये। उन्होंने कहा होगा, चलो जी ज़रा सिनेमा देख आयें, तुमने एक बार तो नहीं की होगी, फिर चुपके से चले गये होंगे। जानते तो थे ही, लौंडी बैठी रहेगी।

दान॰---हाँ, कुसूर मेरा ही है। मैं न जाता, तो वह मुझे गोद में न ले जाते; परन्तु मैं शील न तोड़ सका।

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