पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/१५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

प्रतिज्ञा


पूर्णा—तो बस, उसी तरह पुरुष भी उन्हीं स्त्रियों पर रोब जमा लेते हैं, जो निर्बुद्धि होती हैं। चतुर स्त्री पर पुरुष रोब नहीं जमा सकते, न चतुर पुरुष पर स्त्री ही रोब जमा सकती है। दो में जिसकी बुद्धि तीव्र होगी, उसकी चलेगी।

सुमित्रा—मैं तो मूर्खों को भी स्त्रियों को डाँटते-डपटते देखती हूँ।

पूर्णा—तो, यह तो संसार की प्रथा ही है बहन! मर्द स्त्री से बल में, बुद्धि में, पौरुष में अक्सर बढ़कर होता है, इसलिए उसकी हुकूमत है। जहाँ पुरुष के बदले स्त्री में यही गुण हैं, वहाँ स्त्रियों ही की चलती है। मर्द कमाकर खिलाता है, तो क्या रोब जमाने से भी जाय?

सुमित्रा—बस-बस, तुमने लाख रुपए की बात कह दी। यही मैं भी समझती हूँ। बेचारी औरत कमा नहीं सकती, इसीलिए उनकी यह दुर्गति है; लेकिन मैं कहती हूँ, अगर मर्द अपने परिवार भर को खिला सकता है, तो क्या स्त्री अपनी कमाई से अपना पेट भी नहीं भर सकती?

पूर्णा—लेकिन प्रश्न तो रक्षा का है। उनकी रक्षा कौन करेगा?

सुमित्रा—रक्षा कैसी? क्या उन्हें कोई खा जायगा, लूट लेगा?

पूर्णा—लम्पटों के मारे उनका रहना कठिन हो जायगा!

सुमित्रा—जब ऐसी कई स्त्रियां मिलकर रहेंगी, तो कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। हरेक स्त्री अपने पास तेज़ छुरा रखे। अगर कोई पुरुष उन्हें छेड़े, तो जान पर खेल जाय—छुरी भोंक दे। ऐसी दस-बीस घटनाएँ हो जायँगी, तो मर्दों की नानी मर जायगी। फिर कोई स्त्री की मोर आँख भी न उठा सकेगा।

१४७