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प्रतिज्ञा

जगह नहीं है तो बाबू अमृतराय का विधवाश्रम तो है। दस-पाँच विधवायें वहाँ रहती भी तो हैं। मैं भी वहीं चली जाऊँ, तो क्या हर्ज है? वह समझायेंगे तो बहुत, सुमित्रा को डाँटने पर भी तैयार हो जायेंगे; पर इस डाँट-डपट से और भी झमेला बढ़ेगा, तरह-तरह के सन्देह लोगों के मन में पैदा होंगे। अभी कम से कम लोगों को मुझ पर दया तो आती है, फिर तो कोई बात भी न पूछेगा। विधवा को कुलटा बनते कितनी देर लगती है?

दिन-भर पूर्णा मन मारे बैठी रही। किसी काम में जी न लगता था। इच्छा न रहते हुए भी भोजन करने गईं। भय हुआ कि कहीं सुमित्रा आकर जली-कटी न सुनाने लगे। जैसे-तैसे किसी तरह दिन कटा, रात आई। सुमित्रा ने सरे-शाम ही से किवाड़ बन्द कर लिये भोजन करने के बाद अच्छी तरह सोता पड़ गया तो पूर्णा ने दबे पाँव कमला के द्वार पर आकर धीरे से पुकारा। कमला अभी-अभी सिनेमा से लौटा था। लपककर किवाड़ खोल दिये और बोला---आओ आओ पूर्णा, तुम्हें देखने के लिए जी व्याकुल हो रहा था।

पूर्णा ने द्वार पर खड़े-खड़े कहा---मेरे वहाँ आने का कोई काम नहीं है। मैं केवल आप से विदा माँगने आई हूँ। इस घर में अब मेरा निर्वाह नहीं हो सकता। आख़िर मैं भी तो आदमी हूँ। कहाँ तक सबका मुँह ताकूँ और किस-किस की खुशामद करूँ।

कमला ने द्वार पर आकर कहा---अन्दर तो आओ, तुम तो इस तरह खड़ी हो मानो चपत मारकर भाग जाओगी। जरा शान्त होकर बैठो तो सुनूँ क्या बात है। इस घर में कौन है जो तुम्हें आधी बात

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