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प्रतिज्ञा

ही था कि वह अमृतराय के गहरे दोस्त है। उनमें बड़ी घनिष्ठता है। वह धनी नहीं थे; पर यह कोई ऐब न था, क्योंकि प्रेमा विलासिनी न थी। क्यों उसका मन अमृतराय की ओर बढ़ता था और दाननाथ की ओर से खिंचता था, इसका कोई कारण वह स्पष्ट नहीं कर सकती थी; पर इस परिस्थिति में उनके लिए और कोई उपाय नहीं था। फिर अब तक उसने दाननाथ को कभी इस दृष्टि से न देखा था। उसने मन में एक सङ्कल्प कर लिया था। अब हृदय में वह स्थान खाली हो जाने के बाद दाननाथ को वहाँ प्रतिष्ठित करने में उसे क्षोभ नहीं हुआ। उसने मन को टटोलकर देखा, तो उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह दाननाथ से प्रेम भी कर सकती है। बदरीप्रसाद विवाह के विषय में उसकी अनुमति आवश्यक समझते थे। कितनी ही बातों में वह बहुत ही उदार थे। प्रेमा की अनुमति पाते ही उन्होंने दाननाय के पास पैग्राम भेज दिया।

दाननाथ अब बड़े असमञ्जस में पड़े। यह पैग्राम पाते ही उन्हें फूल उठना चाहिये था; पर यह बात न हुई। उन्हें अपनी स्वीकृति लिख भेजने में एक सप्ताह से अधिक लग गया। भाँति-भाँति की शङ्कायें होती थीं--वह प्रेमा को प्रसन्न रख सकेंगे? उसके हृदय पर अधिकार पा सकेंगे। ऐसा तो न होगा कि जीवन भार-स्वरूप हो जाय! उनका हृदय इन प्रश्नों का बहुत ही सन्तोषप्रद उत्तर देता था। प्रेम में यदि प्रेम को खींचने की शक्ति है, तो वह अवश्य सफल होंगे, लेकिन औचित्य की कसौटी पर कसने से उन्हें अपना व्यवहार मैत्री ही नहीं, सौजन्य के प्रतिकूल जँचता था। अपने प्राणों

से भी प्यारे मित्र के त्याग से लाभ उठाने का विचार उन्हें कातर

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