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प्रतिज्ञा

नहीं दिए। मैं समझ गया कि वहाँ अपना रङ्ग जमा रहे होगे, इसीलिए गया भी नहीं।

अमृतराय ने यह प्रसंग छेड़कर दाननाथ पर बड़ा एहसान किया, नहीं तो वह यहाँ घण्टों गपशप करते रहने पर भी वह प्रश्न मुख पर न ला सकते। अब भी उनके मुख के भाव से कुछ ऐसा जान पड़ा कि यह प्रसङ्ग व्यर्थ छेड़ा गया। बड़े संकोच के साथ बोले—हाँ, सन्देशा तो आया है; पर मैंने जवाब दे दिया।

अमृतराय ने घबड़ाकर पूछा—क्या जवाब दे दिया?

दाननाथ—जो मेरे जी में आया।

'आख़िर सुनूँ तो, तुम्हारे जी में क्या आया?

'यही कि, मुझे स्वीकार नहीं है।'

'यह क्यों भाई? क्या प्रेमा तुम्हारे योग्य नहीं है?'

'नहीं यह बात नहीं। मैं खुद उसके योग्य नहीं हूँ।'

अमृतराय ने तीव्र स्वर में कहा—उसके योग्य नहीं हो, तो इतने दिनों से उसके नाम पर तपस्या क्यों कर रहे हो? मैं बीच में न आ पड़ता, तो क्या इसमें कोई सन्देह है कि उससे तुम्हारा विवाह हो गया होता? मैंने देखा कि तुम इस शोक में अपना जीवन नष्ट किये डालते हो। तुमने कितने ही पैग़ाम लौटा दिये, यहाँ तक कि मुझे इसके सिवाय कोई उपाय न रहा कि मैं तुम्हारे रास्ते से हट जाऊँ। मुझे भय हुआ कि उसके वियोग में घुलते-घुलते कहीं तुम एक दिन मुझे अकेला छोड़कर बचता धन्धा न करो। मैंने अपने हृदय को टटोला तो मुझे जान पड़ा—मैं यह आघात सह सकता हूँ; पर

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