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प्रतिज्ञा

अमृतराय हँस न पड़ें, वह स्वयं हँसकर बोले--मुझ जैसे लफंगे को प्रेमा स्वीकार करेगी, यह भी ध्यान में आया है जनाब के?

अमृतराय ने ज़ोर में क़हक़हा मारा--भई वाह, क्या बात सूझी है तुम्हें। मानता हूँ। अरे मूर्खचन्द, जब लाला बदरीप्रसाद ने तुम्हारे यहाँ पैगाम भेजा, तो समझ लो उन्होंने प्रेमा से पूछ लिया है। इसका निश्चय किये बिना वह कभी पैग्राम न भेजते। कन्या को ऊँची शिक्षा देने का प्रायश्चित्त तो उन्हें भी करना ही पड़ता है। कुछ बातों में तो वह हम लोगों से भी उदार हैं और कुछ बातों में मूर्खो से भी पीछे। परदे से उन्हें चिढ़ है, यह जानते ही हो। विधवा-विवाह उनकी नज़र में सबसे घोर सामाजिक अनाचार है। तुम्हारी यह शङ्का तो निर्मूल सिद्ध हुई। हाँ, यह शंका हो सकती है कि प्रेमा को तुमसे प्रेम न हो, लेकिन ऐसी शङ्का करना ही प्रेमा प्रति घोर अन्याय है। वह कुल प्रथा पर मर मिटनेवाली, सच्ची, आर्य-रमणी है। उसके प्रेम का अर्थ ही है 'पति-प्रेम।' प्रेम का दूसरा कोई रूप वह जानती ही नहीं और न शायद जानेगी। मुझसे उसे इसीलिए प्रेम था कि वह मुझे अपना भावी पति समझती थी। बस उसका प्रेम उसके कर्तव्य के अधीन है। ऐसी व्यर्थ की शंकाएँ करके नाहक दिन गँवा रहे हो, यह सहालग निकल जायगा, तो फिर साल-भर की उम्मेदवारी करनी पड़ेगी।

दाननाथ चिन्ता में डूब गये। यद्यपि उनकी शङ्काओं का प्रतिकार

हो चुका था; पर अब भी उनके मन में ऐसी अनेक बातें थीं, जिन्हें यह प्रकट न कर सकते थे। उनका रूप ही अलक्षित, अव्यक्त था। शङ्का तर्क से कट जाने पर भी निर्मूल नहीं होती। मित्र से बेवफ़ाई का

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